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________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् संकास की कथा केवली ने सद्धर्म देशना रूपी वृष्टि का नव्य जल बरसाया। __ अनन्त भव रूपी संसार में घूमते हुए भव्य जीवों द्वारा जो-जो भी कर्म अर्जित किये जाते हैं, उसको कोई भी कदापि हरण नहीं कर सकता। मनुष्यों का जो भी शुभ या अशुभ होता है, वह सभी पूर्व में किये गये कर्मों का अद्भुत फल है ऐसा जानना चाहिए। तब इसी बीच अवसर को जानकर इभ्य-पुत्र ने कर-कमलों को कोशी कृत करके मनि को कहा-हे स्वामिन! मेरे द्वारा पर्व भव में ऐसा कौनसा कलषित कर्म किया गया. जिससे जन्म से लगाकर आज तक मैंने स्वप्न में भी सख का दर्शन नहीं किया। तब भगवान ने सम्पर्ण जनमेदिनी के सामने संकास के जन्म से लेकर सारे पर्व भवों के वतान्तों को विस्तारपर्वक कहना शरू किया। अंत में कहा-हे महाभाग। इस भव में ओर पहले के सारे भवों में देवद्रव्य के भक्षण से ही यह सर्व दुर्विपाक प्राप्त हुआ है। यह सुनकर संवेग से रंजित नयन वाला होकर उसने अपने आप को पापी मानते हए गर्दा करना प्रारंभ कर दिया। हा! हा! मैं पापात्मा. पापकर्मी, अधैर्यशाली, निर्लज्ज, मर्यादारहित, नपुंषक के समान अपने कुल का दूषक हूँ। मनुष्य जन्म पाकर, अर्हत् धर्म को जानकर, सिद्धांत-सार को सुनकर सुसाधुओ की सेवा पूजा करके भी लोभ से अभिभूत होकर मूदचित्त से मुझ नराधम ने इस प्रकार के दुःख विपाकवाले चैत्यद्रव्य का भक्षण किया। अतः हे स्वामी! मुझ पर प्रसन्न होकर मुझे कोई उपाय बतायें, जिससे मैं अपने रौद्रातिरौद्र दुःकर्मो का क्षय कर सकूँ। तब मुनि ने कहा-हे भद्र! अगर इन कर्मों से निस्तार चाहते हो, तो जब तुम्हारे पास संपत्ति हो, तब तुम उसे स्वयं चैत्यों में लगाना। तब उसने उसी समय उन्हीं मुनि के पास वैराग्योचित मनोवृत्ति से अभिग्रह धारण किया कि अगर में भोजन व वस्त्राच्छादन के अतिरिक्त धन प्राप्त करूँगा,तो वह सारा द्रव्य चैत्यों में नियोजित करूँगा। जैसे ही उसने शुद्ध मन से अभिग्रह धारण किया, वैसे ही उसने धन को अपने अभिमुख देखा। तब धन सम्पत्ति को सामने देखकर विस्मित होते हुए उसने विचार किया-अहो! धर्म की महत्ता से मेरे कर्म विलीन हो गये। जो मैंने जन्म से आज तक नाक से सूंघा तक नहीं, वह आज मैं साक्षात् देख रहा हूँ। यह धन उसका फल नहीं है, तो फिर किसका फल है? अतः विशेष श्रद्धावान होकर, रोमांचित कंचुक वाला होकर, जिन-चैत्यों में आनन्दित होकर स्नात्र पूजा आदि की। अष्टाह्निका महोत्सव किये। जीर्णोद्धार करवाया। प्रत्येक चैत्य में कलशादि रखा। इस प्रकार इभ्य सेठ के पुत्र रूप में उत्पन्न संकाश के जीव ने जैसे-जैसे अपने वित्त को मंदिरादि कार्य में व्यय किया, वैसेवैसे वह अधिकाधिक बढ़ने लगा। अतः धन की अत्यधिक प्रचुरता हो जाने पर उसने नया चैत्य बनवाया। वह चैत्य ऊँचाई में कैलाश पर्वत का अनुकरण करता था। उस चैत्य में यथोक्तविधि के द्वारा सर्वसंपूर्ण लक्षणवाली आर्हती प्रतिमा स्थापित की गयी। क्योंकि नाऽविधिः श्रेयसे यतः। अर्थात् श्रेयस् कार्य में अविधि नहीं होती। चैत्य द्रव्य के उपभोग से हुई दुर्विपाक की अनुभूति से डरते हुए उसने कहीं भी लेशमात्र भी द्रव्य को व्यर्थ नहीं जाने दिया। उस शुद्धमति संकाश के जीव ने अपने अभिग्रह का सम्यक् प्रकार से पालन किया। पूरे जीवन में कभी भी अपने अभिग्रह से विश्राम नहीं लिया। उस मतिमान ने संपूर्ण चैत्यों के धन की रक्षा करते हुए उन पर ऊँचा व्याज देकर उस धन को और बढ़ाया। उस धर्म क्रिया से उद्भूत सत्संवेग रस की किरणों से उसके पूर्व के सारे कर्म प्रक्षालित हो गये। संकास के रूप में जन्म धारण करके उस भव में जो प्रबल उग्र कर्म जनित किये, वे इस जन्म में प्रक्षालन से विमलता को प्राप्त हो गये। वह इभ्य सेठ का लड़का सम्यविधि से अन्तकृत्य करके प्राण त्याग पूर्वक देव की संपदा को प्राप्त हुआ। 86 -
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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