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________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् नल दमयन्ती की कथा तब मैंने उनके परिपार्श्व में दीक्षा लेकर इस गिरि के ऊपर आकर शुक्लध्यान की अग्नि से घातिकर्मों को दग्ध करके केवलज्ञान प्राप्त किया है। इस प्रकार उनको अपना आख्यानक कहकर मुनि कृतार्थ सिंहकेसरी की तरह योगों का निरोध करके शेष कर्मों का संहार करके परम निर्वाण को प्राप्त हुए। उनके सिद्ध शरीर को देवासुर तथा मानवों ने काष्ठ व अगरु की चिता बनाकर अग्निसात् कर दिया। ___ सचारित्रवाले की जो गति होती है, उस सिद्धि रूप सौध को जाने के लिये कुलपति ने गुरु मुख से दीक्षा ग्रहण की। तब उन गुरु के पास दमयन्ती ने भी दीक्षा की याचना की-गुरुवर! मुझे भी शाश्वत सौख्य दाता चारित्र मार्ग पर आरूद कीजिए। गुरु ने कहा- हे भद्रे! तुम्हारी अभी व्रत योग्यता नहीं है। अभी भी तुम्हारे गाद कर्म भोग फल बाकी हैं। प्रभात होने पर गिरि से उतरकर गुरु ने तापसपुर नगर को अपने चरण कमलों से सूर्य की तरह पावन किया। भैमी निष्प्रतिकर्माङ्गी होकर अति मलिन वस्त्रों को धारण करते हुए विजितेन्द्रिय मुनि की तरह वहाँ सात वर्ष तक रही। उसके अगले वर्ष में किसी पथिक ने बताया कि गुफा के पास यहीं कहीं मैंने तुम्हारे पति को देखा है। उसके वचनों को श्रवण करते ही भैमी प्रेम से विकसित चक्षुवाली होकर शरीर के कष्टकाकीर्ण होने पर भी कमल की नाल की तरह शीघ्र ही दौड़ पड़ी। कौन है? कौन है प्रियवार्ता को निवेदन करनेवाला महाभाग? इस प्रकार बोलती हुई अखिल दिशाओं में देखती हुई दमयन्ती आगे बढ़ने लगी। उस पथिक के शब्दों का अनुसरण करती हुई भयत्रस्त कुरङ्गी की तरह महावेग के साथ वह वन में दौड़ने लगी। शब्दमात्र को वहाँ डालकर भूत के समान छलना दिखाकर वह पथिक तो अन्तध्यान हो गया। भैमी ने अपना स्थान भी त्याग दिया। प्रेमरथ पर आरूढ़ होकर अपने आस्थान से वह बहुत दूर चली गयी। पर उसने न तो नल को देखा, न नल की वार्ता करनेवाले पथिक को। तब उसने सोचा कि मैं वापस उसी गुफा में चली जाऊँ एवं धर्म करते हुए अपने दिन बिताऊँ। इस प्रकार विचारकर वह वापस लौटने लगी-लेकिन मार्ग को नहीं जानती हुई उस पारावार के समान अपार कान्तार में खो गयी। इस प्रकार दुःख पाती हुई वह मूर्छित होती हुई, कभी खड़ी होकर, कभी बैठकर रोती हुई, उच्च स्वर में विलाप करती हुई, विषाद को प्राप्त हो रही थी। इस प्रकार वियोग से पीड़ित उसने अनेक क्रियाओं को धारण किया। अपने दुःख के संविभाग से उसने जंगल में रहनेवाले जानवरों को भी रुला दिया। तब उसने यमवधू के समान एक राक्षसी को देखा। उसने भैमी से कहा-मैं बहुत भूखी हूँ, इसलिए तुम्हें खाऊँगी। धैर्यपूर्वक भैमी ने कहा-अगर ऐसा ही है, तो तुम तीन कारणों से मुझे नहीं खा पाओगी। अरिहन्त देव नित्य ही अगर मेरे हृदय में प्रासाद की तरह बिराजमान हैं तो हे राक्षसी! तुम मुझे नहीं खाओगी। तुम्हारे मनोरथ नष्ट हो जायेंगे। सुगुरु की उपासना अगर मेरे दिल में सुगुरु की तरह है, तो हे राक्षसी! तुम मुझे नहीं खाओगी, तुम्हारे मनोरथ नष्ट हो जायेंगे। ___ अगर गृहस्थ होते हुए भी मैं सर्वथा सम्यग् दर्शनवती हूँ, तो हे राक्षसी! तुम मुझे नहीं खाओगी। तुम्हारे मनोरथ सर्वथा भ्रष्ट हो जायेंगे। सती के इन वचनों को सुनकर राक्षसी वापस लौट गयी। क्योंकियतः सतीनां वाक्यानि मन्त्रानप्यतिशेरते। सतियों के वाक्य मन्त्र से भी अतिशय शक्तिवाले होते हैं। जैसे तीव्र ताप दोष से युक्त होने पर ग्रीष्म श्री अत्यन्त दुःसह होती है, वैसे ही राक्षसी इन्द्रजाल की तरह सती के वचनों को सुनकर अदृश्यभूत हो गयी। 56
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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