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________________ नल दमयन्ती की कथा सम्यक्त्व प्रकरणम् से न दिखने पर अन्धे की तरह चलता हुआ पर्वत से अलग हुए पत्थर की तरह सहसा मैं किसी गड्ढे में गिर पड़ा। भग्नदन्त वाला मैं उस गड्ढे में सात दिन तक नारकी जीवों के समान घोर यातना सहन करता रहा। अनिष्ट वार्ता की तरह उन्होंने मेरी कोई वार्ता नहीं की। मेरे व्याधि रूप की तरह चले जाने से वे विशेष रूप से प्रसन्न रहने लगे। इसलिए उन तापसों के प्रति मेरी काली क्रोध की ज्वाला जलती ही रही। उनकी इस प्रकार की अवगणना मेरे लिए घी में आहुति के समान हुई। अनन्तानुबंधी क्रोध से क्रुद्ध होते हुए दुर्मनवाला मैं मरकर उसी तापसों के अरण्य में उसी गड्ढे में साँप बनकर पैदा हुआ। किसी समय आपको देखकर मैं आपको डंसने के लिए आगे बढ़ा। पर आपके द्वारा पठित नमस्कार मन्त्र से मैं गतिकीलित होकर स्तम्भित हो गया। आहत-शक्ति वाला होकर लौटकर मैं एक बिल में प्रवेश कर गया। प्राणों को धारण करने के लिए नित्य जीवों का भक्षण करने लगा। उसके बाद बरसती हुई जलधारा के बीच तापसों को उपदेश देते हुए आपको मैंने सुना। आपने अद्भुत धर्मदेशना दी कि जो जीवों की हिंसा करता है, वह निर्दयी, क्रूर कर्मवाला मार्गभ्रष्ट की तरह संसार में भ्रमण करता है। यह सुनकर मैं विचार में पड़ गया कि नित्य जीव हत्या में रत रहनेवाला मैं शिखा रहित साँप मरकर किस दुर्गति में जाऊँगा? तभी मेरे द्वारा किसी तापस की जटा-किरीट देखी गयी। ऊहा-अपोह करते हुए मुझे जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। अपने पूर्वभव के समस्त वृत्तान्त को आईने की तरह अपने सामने देखा। तब आत्मा की निंदा करते हुए मुझे वैराग्य उत्पन्न हुआ। शीघ्र ही अनशन धारण करके धैर्यवान् ऋषि की तरह मरण को प्राप्त किया। उसीके प्रभाव से मैं सौधर्म देवलोक में कुसुम समृद्ध विमान में कुसुमप्रभ नाम के उत्तम देव के रूप में पैदा हुआ हूँ। हे माता! अगर मैंने आपके धर्मवचनों को नहीं सुना होता, तो पता नहीं मुझे किन दुर्गतियों में भटकना पड़ता। हे माता! इस समय अवधिज्ञान से तुम्हें यहाँ स्थित जानकर धर्मदात्री को नमस्कार करने के लिए मैं यहाँ आया हूँ। हे माते! कहो, आपके लिए मैं क्या करूँ? तभी भैमी ने कहा-भाई! तुम आर्हत धर्म का पालन करो। प्रशम भाव से उज्ज्वल उस देव ने सभी तापसों से प्रीतिपूर्वक बात करके पहले किये गये कोप विप्लव की क्षमा याचना की। कर्मरूपी भुजङ्ग बिल के आलम्बन से भी घसीट कर दुर्गति में ले जाते हैं, अतः किसी को भी थोड़ा भी क्रोध नहीं करना चाहिए। देखो! देखो! यह कोप का ही विपाक है कि तपोनिष्ठ देहवाला कर्पर सर्पता को प्राप्त हुआ। भैमी द्वारा पहले से ही श्रावक बने हुए कुलपति आदि ने केवली साधु के शिष्य वृत्त को देखकर साधुव्रत की याचना की। केवली ने कहा-तुम्हें मेरे गुरु दीक्षा देंगे। सूरीश्वर श्री यशोभद्रजी ही मेरे गुरु हैं। पुनः कुलपति ने विस्मय से उत्फुल्ल नयनों द्वारा पूछा-भगवान्! वैराग्य योग से आपने कैसे व्रतों को ग्रहण किया? तब केवली ने कहा-कोशल में नल का अनुज कूबर राजा राज्य करते हैं। मैं उनका पुत्र हूँ। उधर भङ्गा नामकी नगरी है। उसका राजा केसरी है। उसकी सुता बन्धुमती है। राजा की मुझ पर मेहरबानी थी। तात आज्ञा से राजा के घर जाकर मैं कामदेव रति की तरह उसके साथ चारित्र से चलायमान हआ। कछ अन्तराल से मैंने धर्मदेशना देते हुए गुरु भगवन्त को देखा। तारों से घिरे हुए चन्द्रमा की तरह वे बहुत से शिष्यों से आ थे। तब उनकी कल्याणकारी भक्ति में निमग्न होकर उन्हें वन्दना की। व्याख्यान को सुना। मनरूपी घोड़ा उनके गीतों से सध गया। व्याख्यान के अन्त में मैंने गुरु भगवन्त से पूछा-मेरा कितना आयुष्य बाकी है? श्रुत-उपयोग के द्वारा जानकर उन्हों ने बताया कि मेरा ५ दिन का आयुष्य ही अब बाकी है। तब मैंने विचार किया-हाय! हाय! धिक्कार है मेरे प्रमाद को! मैंने दुर्लभ मनुष्य जन्म को हार दिया। और कुछ भी धर्मकार्य नहीं किया। गुरु ने कहाशोक मत करो। तुम अभी भी व्रतग्रहण कर सकते हो। एक दिन की दीक्षा भी सभी पापों का क्षय करनेवाली है। 55
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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