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________________ ॥१॥ वं पुणरवि लहं-जह चक्किगिहंमि नोयणं तस्स, तह मणुयत्तं जीवाण-जाण संसारकंतार. ॥ ५५ ॥-- ___ ए रीते जेम फरीने तेने चक्रवर्तिना घरे जोजन मळवू पुर्वज छ तेम आ संसाररूप कांतारमां जीवोने की मनुष्यपणुं मळg झन जाणवू. ५०५. (पहेला दृष्टांतपरनी कथा समाप्त थइ) श्री उपदेशपद. अयंचात्र पूर्वाचार्यकृतो विशेषोपनयो दृश्यते. यथा स साधितसकनजरतो ब्रह्मदत्तश्चक्रवर्ती-तथा निखिलजीवलोकमध्यसमुज्जूनितधर्मचक्रवर्त्तित्वसाम्राज्यः यथासौ महाटवीपर्यटनपटुबटु – स्तया नर आ स्यळे पूर्वाचार्योए आ रोते बळी विशेष उपनय करेल :जेम अाखा जरतने साधनार ब्रह्मदत्त चक्रवत्ती, तेम आखा जगत्मां धर्मर्नु राज्य करनार तीर्थकर जाणवा. जेम ते मोटी अटवीमा फरवा मां हुशीयार ब्राह्मण, तेम नरनारकादि पर्यायवाला छेना विनाना संसारमा अनेकवेळा जमी आवेशो आ जीव जाणवो. जेम चक्रवर्तिना दर्शन अपावनार दरबार–तेम मिथ्यात्व मोहनीयादि कर्मनो विवर जे. जेम ते ब्राह्मणीए ब्राह्मणने बीजी स्त्रीमां आशक्त थवा अणइच्छती यकी खावामाज संतोषी राख्यो, तेम आ जीव ए
SR No.022167
Book TitleUpdeshpad Part 01
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherLalan Niketan Madhada
Publication Year1925
Total Pages420
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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