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________________ ।। १७३ ॥ माः, इत्येषा कथ्यते बुद्धिः - पुंसो वैनयिकी जिनैः ॥ ४ ॥ पूर्णः कुद्धेतुदृष्टांतै-र्न तत्वं प्रतिपद्यते, मंडलश्चर्मकारस्य - जोज्यं चर्मलवैरिव ॥ २ ॥ तथ्यं मन्यते तथ्यं -विपरीतरुचिर्जनः, दोषातुरमनास्तिक्तं ज्वरीव मधुरं रसं ॥ ६ ॥ दीनो निसर्गमिथ्यात्व -स्तत्वातत्वं न बुध्यते, सुंदरासुंदरं रूपं - जात्यंध इव सर्वथा ॥ ७ ॥ देवो रागी, यतिः संगी- धर्मः प्राणिनिशुंजन:, मूढदृष्टिरिति ब्रूते युक्तायुक्त विवेचकः ॥ ८ ॥ व शर्वथा क्षणिक के क्षणिकज छे, सगुण के निर्गुण ज छे एम बोल ते कांतिक छे. (२) वीतराग सर्व कला जीवाजीवाद खराबे के नहि एम संकल्प करवो ते सांशयिक बे (3) सर्वे आगमो, सर्वे लिंगवाळा सर्व देवो, अने सर्वे धर्मो हमेश सरखाज छे एम जे पुरुषनी बुद्धि छे तेने जिननगवानाए वैनयिक मिथ्यात्व कहेलुं छे. (४) चमारोना टोळाए चामकाना कटकाना नजीया खातां मेव्या नहि तेम जे कुहेतु अने दृष्टांतोथी चमकायलो रही तत्वने कबूल नहि करे तेने पूर्वव्युद्ग्राह मिथ्यात्व बे. ( ५ ) सन्निपातमां चमेलो ज्वरी जेम तीखाने मीतुं रस माने ते खोटाने खरुं माने ते विपरीत रुचि जागवी ( ६ ) जन्मांध पुरुष जेम सुंदर के असुंदर रूपने कोइ रीते ओळखी शके नहि तेम जे विचारो तत्वात्वने मूळी जनहि समजे तेने निसर्ग मिथ्यात्व जाणवं. ( 9 ) मूढदृष्टि मिध्यात्ववाळो पुरुष युक्तायुक्तनो वि वेक नहि करतां रागीने देव कहे छे. संगमां फसेलाने यति मानी बेशे छे, अने प्राणिनी हिंसाने धर्म कया करे बे, माटेए मूढ दृष्टि जाणवी. (G) तदेव पुर्निवारवैधुर्याधायकतया ज्वरो रोग विशेषस्तस्योदय उदद्भवस्तत्र ज्ञेयं. ए मिथ्यात्व जारे वैधर्य करनार होवाथी ज्वर तुल्य छे तेनो उदय होतां तेम याय छे एम जाएं. श्री उपदेशपद.
SR No.022167
Book TitleUpdeshpad Part 01
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherLalan Niketan Madhada
Publication Year1925
Total Pages420
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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