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विपर्ययफलमेव दृष्टांतहारेण जावयति समणीयपि जरुदये-दोसफरचेव हंत सिह मिणं, एवंचिय सुत्तंपिहु-मिबत्तजरोदए णेयं. ॥ ॥
___ उलटुं फळ दृष्टांत आपीने जणावे छेःतावना जोरमां शमनीय पण दोष वधोर ने ए जाणीती वात छे. तेम मिथ्यात्वरूप ज्वरना जोरमां सूत्र पण जाणवू. २०
(टीका) शमय-त्युपशमयति शमनीयं पर्पटकादि तदपि-किंपुनरन्यत्तत्प्रकोपहेतुघृतादि-ज्वरोदये पित्तादि प्रकोपजन्यज्वरोदये-किमित्याह-दोषफलं चैव सन्निपातादिमहारोगविकारहेतुरेव हंतत्ति सन्निहितनव्यसन्यामंत्रणं-सिधं प्रत्यवादिप्रमाणप्रतिष्टितं इंदं पूर्वोक्तं वस्तु. दृष्टांतमुपदर्य दाष्टातिकयोजनामाह.
श्री उपदेशपद.
टीका
दरदने शमावे ते शमनीय पाप वगेरे ते पण- तो पड़ी तेना प्रकोपना हेतु घी वगेरानी शी वात करवीपित्तादिकना प्रकोपयी प्रगटेना तावमा दोषने वधोर ने एटले के सन्निपात वगरे महारोग विकारनो हेतु थइ पमे छे. हे जव्यो, एवात प्रत्यवादिप्रमाण सिकछे. आदृष्टांत आपी दार्टीतिकनी योजना करे छः-एज रीते मिथ्यात्वरूप ज्वरना उदयमां सूत्र पण जाणवू.