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________________ કેવલિ દ્રવ્યહિંસાવિચાર ४६८ मोहनीय कर्मना उदयथी भावाश्रव परिणाम हुई तेहनी सत्ताथी द्रव्याश्रवपरिणाम हुई" एहQ कहई छई ते न घटई जे माटई इम कहतां द्रव्यपरिग्रह पणि धर्मोपकरणरूप केवली नई न जोईई ॥५८॥ “एणइंज करी उदित चारित्रमोहनीय असंयतिनई भावाश्रवकारण, प्रमत्तसंयतनइ पणि सत्तावति चारित्रमोहनीय द्रव्याश्रवन कारण, तेहमां अयतनासहित रागद्वेष ज प्रमाद गणिई', तेहथी प्रमत्तसंयत लगई द्रव्याश्रव हुई अनई अप्रमत्तनई मोहनीय अनाभोगथी ते हुइ. ।" इत्यादिक कल्पना पणि निषेधी जाणवी, जे माटई अप्रमत्तनई द्रव्यपरिग्रहनई ठामई ए युक्ति न मिलइ, तथा चारित्रमोहनीय सर्वनइ उदयथी भावाश्रव कही तो ४ गुणठाणादिकइ न घटइ, केतलाइकनो उदय लीजई तु ते यतिनई पणि छई', ३ कषायनी उदयसत्ता ते मेलि भावाश्रव द्रव्याश्रवनो परिणाम कहिइ, तो तेहनई क्षयइ छद्मस्थनई पणि द्रव्याश्रव न हुओ जोइइ. तथा प्रमादई भावाश्रव कहिओ छइ इत्यादिक न घटई ॥५९।। "अयतनया चरन् प्रमादानाभोगाभ्यां प्राणिभूतानि हिनस्ति” एहवू दशवैकालिक सूत्रनी वृत्तिमां कहि छई ते माटई प्रमाद अनाभोग विना केवलीनई द्रव्यहिसा न हुई" एहवी मूलयुक्ति कहइ छइ तेह ज खोटी, जे माटई अवश्यभावी हिंसानां कारण न कहियां, केवल अयतनानई उद्देशई ए कारण कहियां, सघलई ए हेतु लीजइ तो आकुट्टिकादिक भेद न मिलई ॥६०॥ ___ "केवलीनई द्रव्यहिंसा हुइ ते सर्व प्रकार जाणतां हिंसानुबधी रौद्रध्यान हुइ'' एहवं कहई छई ते खोटु, जे माटई इम कहतां द्रव्यपरिग्रह छई तेहना (ते) सर्व प्रकार जाणतां संरक्षणानुबधी रौद्रध्यान पणि न वारिउ जाई ॥६१॥ प्रमत्तसंयत शुभयोगनी अपेक्षाई अनारंभी, अशुभयोगनी अपेक्षा आरंभी भगवती. सूत्रमा कहिया छई तिहां 'शुभयोग ते उपयोगई क्रिया, अशुभयोग ते अनुपयोगई" एहवु वृत्ति कहि छइ ते कुवेषी अशुभयोग अपवादई कहई छई ते प्रकट विरुद्ध, जे माटइजाणी मृषावाद मायावत्तिया क्रिया भणी अप्रमत्तनइ पणि प्रकट जणाई छई तथा अपवादई पणि शारीति बृहत्कल्पादिकई शुद्धता ज कही छई तो अशुभयोग किम कहिइ ॥२॥ 'आरंभिकी क्रिया ६ गुणठाणई सदा हुई" एहवु लिख्यु छई ते न घटई-जे माटई अन्यतरप्रमत्तनई कायदुष्प्रयोगभावईज आरंभिकि क्रिया पन्नवणासूत्रवृत्तिमां कहीं छह 'केवलीनई अपवाद न हुइ ज' एहवु कहइ छइ ते न घटई जे माटई निशाहिंडन, श्रुतव्यवहार प्रमाण राखवा निमित्त अनेषणीय आहारग्रहणादिक अपवाद केवलीनई पणि कहिया छई ॥६४॥ "ते अनेषणीय आहारग्रहण केवलीनई सावद्य नी, ते माटई तेहथी अपवाद न हुइ, अनई जो छद्मस्थ अनेषणीय जाणई तो केवली भोजन न करइ, केवलीनी अपेक्षाई व्यवहार शुद्धि इम न हुइ ते भणी, अत एव रेवती अशुद्ध जाणइ छई ते भणी तेहनो करिओ कोलापाक महावीरइं न लीधो” एहवी कल्पना करई छई ते पणि निरर्थक-जे माटइं निशाहिंड
SR No.022165
Book TitleDharmpariksha
Original Sutra AuthorYashovijay Maharaj
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1987
Total Pages552
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size19 MB
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