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________________ ૧૦૮ બોલ સંગ્રહ छइ ते न घटई, जे माटई 'द्रव्यस्तवमां-भावलेश' पंचाशकादिक ग्रंथई कहिओ छईते पणि भावमिश्र हुइ जाई ।। ३९॥ ___ "इयमयुक्ततरा दुरन्तसंसारकारणम्” एहवु श्राद्धप्रतिक्रमण चूर्णि कहिउ छई', तेहनो अर्थ ए विपरीत प्ररूपणा घणु अयुक्त दुरन्तानन्तसंसारनु कारण । इहां एहवु लिख्यु छई जे 'दुरन्तानन्त शब्दनो अर्थ न मिलइ 'दुरन्त' ते जेहनो दुखई अंत आवइ 'अनंत'-ते जेहनो अंत नावई' ने ए पूर्वाचार्यना ग्रंथ खंडियानी खोटी कल्पना,-जे माटई 'दुरंतानन्त' कहतां महानंत कहिइ' "कालमणतदुरंत” ए वचन उत्तराध्ययननी साखि, इहां कोइ दोष नथी ॥४०॥ "जिनवचननो दूषनार जमालिनी परि नाश पामइं 'अरघट्टघटीयंत्र' न्यायई संसारचक्रवाल भमई” एहवं सूयगडांगनियुक्तिवृत्ति कहिउ छइं, ते माटई जमालिनई अनंतो संसार" एहवी कल्पना करइ छइ ते न घटइ-जे माटई दृष्टान्तमात्रई साध्यसिद्धि न हुई, नहीं तो उत्सूत्रप्ररूपणा अनंतसंसारहेतु कहि छई तिहां श्राद्धप्रतिक्रमणचूणि, श्राद्धविध्यादिक ग्रंथमा मरीचि दृष्टांत कहिओ छई ते भणि मरीचि पणि अनंतसंसारी हुई जाई तथा 'सूत्रविराधनाई अनंता जीव चतुरंत संसार भमिया जमालिना परि' एहवु नंदीवृत्तिमा कहि छइते भणिं जमालिनई च्यारइ गति हुई जोइइ ॥४१।। ____ "जमाली णं भंते ! देवे ताओ देवलोगाओ कहिं गच्छिहिति कहिं उववन्जिहिति । गोयमा ! चत्तारि पंच तिरिक्खजोणिय' मणुअदेवभवग्गहणाई संसारं अणुपरिअट्टित्ता तओ पच्छा सिज्झिहिंति' [श० ९, उ, ३३] ए भगवती सूत्रमा 'चत्तारि पंच' कहतां ९ भेद तिर्य चना लेईइ इम अनंता भव जमालीनई थाई” एहवु लिख्यु छई ते न मिलइ-जे माटइ एहवो विषम अर्थ पूर्वि कणिं विचारिओ नथी तथा ९ भेद तिर्यचमा पणि नियमइ अनंता भव आवई नहीं ॥४२।। कोइक तिर्यचनी कायस्थिति लेई जमालीनई अनंता भव कहई छई ते पणि कल्पनामात्र-जे माटई सूत्रई भवग्रहण ज कहियां छई ॥४३॥ "च्युत्वा ततः पञ्चकृत्वो, भ्रान्त्वा तिर्यग्नृनाकिषु । अवाप्तबोधिनिर्वाण', जमालि: समवाप्स्यति ॥ १॥" ए हेमवीरचरित्रश्लोकमां एहवु कहिउ छई जे जमाली तिहाथी चवी ४ वार तिर्यच मनुष्यदेवतामां भभी मोक्ष जास्ये, एहथी अनन्त भव नथी जण ता, तिहां कोइ कहई छई जे पंच वार तिर्यंचमां भमतां भमतां अनंत भव थाई' ते न मिलइ । जे माटई भव ग्रहणई भमतां अनंत भव न घटई ॥४४॥ देव किब्बिसिया णं भंते ! ताओ देवलोगाओ आउक्खएण' भवक्खएण ठिइक्खएण अतर' चयं चइत्ता कहिं गच्छिहिंति कहिं उववजिहिति १ [श० ९ उ. ३३]' ए सामान्य सूत्र सामान्यथी देव किल्बिषीयानई चत्तारि पंच शब्दथी अथवा 'जाव' शब्दथी जेम अनंतो संसार लीजई तिम जमालीनई सूत्रई पणि 'जाव' शब्द 'ताव' शब्द बाहरेथी लेइ अनंतो संसार कहवो” एहवु लिख्यु छई, ते घणु ज ताण्यु एवु प्रतिभासई छइ तथा
SR No.022165
Book TitleDharmpariksha
Original Sutra AuthorYashovijay Maharaj
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1987
Total Pages552
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size19 MB
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