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________________ १०८ बोल संग्रह में मीटई व्यवहार-सचित्तता न आंदरिई तो संघलई शंका न मिटई तथा नदीमा अनंतकाय निश्चय सचित पणि छई आगमथी निश्चय थई पणि देख्या विना अनाभीगे कहिंई तों विश्वासी पुरुषई कहिया जे वैस्त्रादिकई अंतरित सजीव तेहनी विराधनाइं पणि अनाभोग थाइं ॥ ६७ ।। (६८) यतिनई अनीभोंगमूलज हिंसा हुई तहमा स्थावर सूक्ष्म सनी अनाभोग केवलज्ञान विना न टलई अनई कुथुप्रमुखें स्थूल त्रसनो अनाभोग घणी यतनाइं टलइं, अत एव नदी ऊतरतां जल संयम दुराराधन कहिउं पणि कुथुनी उत्पत्ति कहिउं ते माटई नदी ऊतरतां जीवनइं अनाभोगई संयम न भाजइं एहवी कल्पना करइं छइं ते खोटी जे माटइं त्रसनी परि थावरनो आभोग पणि यतिनइं करवो कहिओ छइं अत एव ८ सूक्ष्मादिक जोवानी यतना दशवैकालिकादिक ग्रंथइं प्रसिद्ध छई ॥ ६८ ॥ TEST एजनादिक्रियायुक्तस्यारम्भाद्यवश्यम्भावाद्यदागमः "जाव णं एस जीवे एयइ वेयइ चलइ फंदइ इत्यादि यावदारंभे वट्टइ" इत्यादि एह प्रवचनपरीक्षाइं लुपंकाधिकारइं कहिउं छइं अनइं सर्वज्ञशतकइं केवलीनइं अवश्यंभावी पणि आरंभ निषेध्यो छइं ए परस्पर विरुद्ध ।। ६९ ।। (७० ) विनापवाद जाणी जीवघात करइं ते असंयत हुइ एहवं कहइ छई ते खोटुं
SR No.022149
Book TitlePanchgranthi 108 Bol Sangraha Shraddhanajalpattak Adharsahasshilangrath Kupdrushtantvishadikaran Kaysthitistavan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani, Yashodevsuri
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1980
Total Pages140
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size7 MB
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