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________________ (७७) ॥ अथ पंचमोऽअधिकारः ॥ सिद्ध भगवन्तो ने कर्म नु अग्रहण मूलम्चेदा श्रया श्रेयक भाव एवं सिद्धोऽस्ति कर्मात्म कयोरवश्यम् जीवास्तुसिद्धाप्रपिसन्त्यनन्त चतुष्टयेद्धाः परमेष्ठिसंज्ञा(:) १ पच्छामिपूज्या:! खलुहिसिद्धा-त्मानोनकर्माणि समाददन्ते । कथंतदेषामपिसौख्यसत्त्वा-ल्लातांसुकर्माणि निषेधकःकः ? २ गाथार्थ-जो आत्मा अने कर्म नो आधार प्राधेय भाव सिद्ध थयो तो चार अनंत चतुष्टय वाला अने परमेष्ठि एवा सिद्ध भगवंतो केम कर्म ग्रहण न करे ? एमने पण सुख नो भाव होवा थी तेस्रोने शुभ कर्मो ग्रहण करतां कोण रोके ? विवेचन- प्राण बे प्रकार ना छे-द्रव्य प्राण अने भाव प्राण. पांच इन्द्रिय, मन, वचन अने काया न बल, श्वासोश्वास अने आयुष्य ए दश द्रव्य प्राण छे अने अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत चारित्र, अने अनंत वीर्य ए चार भाव प्राण छे. संसारी जीव ने द्रव्य प्राण अने भाव प्राण एम बन्न प्रकार ना प्राणो होय छे, परन्तु सिद्ध भगवंतो ने फक्त ए चार भाव प्राणज
SR No.022148
Book TitleJain Tattva Sar Sangraha Satik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherRanjanvijayji Jain Pustakalay
Publication Year1979
Total Pages402
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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