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- अपनी दृष्टि मेंविवेकवान प्राणी इस अगाध भवसागर को पार कर अनन्त सुख की कामना करता है । ' 'सुखं मे भूयात् दुःखं मा भूत" अर्थात् मुझे सुख ही सुख हो, दुःख न हो । ऐसी इच्छा रहने पर भी "न च दुःखेन सम भिन्न" अर्थात् निरतिशय सुख को प्राप्त नहीं कर पाता कारण कि मानव में विवेक का अभाव होने से सत् एवं असत् का विवेचन करने की शक्ति विलुप्त हो जाती है। विवेक के अभाव में भौतिक पदार्थों में ही उसकी निष्ठा रहती है और इन्द्रियों की स्वाभाविक प्रवृत्ति 'भूतानि खानि व्यतणत् स्वयं भू' इत्यादि आगम से प्राशु विनशि सुख में ही मनुष्य सुख मानता है। अन्य दर्शनों की तरह 'जैन तत्त्व सार' नामक ग्रन्थ में निश्रेयस (मोक्ष) प्राप्ति के सरल साधनों का विवेचन है । इस अागम के अध्ययन से विवेकशील मानव को उन्मार्गगामी उद्दाम मन को निग्रहित करने की सरल युक्ति प्राप्त होती है । अतः मनुष्य को क्रियमाण इन जड़ कर्मों से नित्य शुद्ध, बुद्ध, मुक्त एवं पूर्णानन्द स्वरूप आत्मा का बन्धन कैसे होता है तथा मुमुक्षु जीव को इन जड़ कर्मों के बन्धन से मुक्त होकर कैवल्यैकरूपता मुक्ति प्राप्ति का सरल साधन इस प्रस्तुत 'जैन तत्त्व सार' ग्रन्थ में वर्णित है।
क्लिष्ट संस्कृत भाषा में बहु विस्तार युक्त इस ग्रन्थ के सार को प० पू० श्रद्धेय आचार्य महोदय श्री रत्नशेखर सूरिजी महाराज ने अपने सूक्ष्म अध्ययन और अनुभव के