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________________ (४१) थी कर्म ग्रहण करे छे, तेनु स्वरूप सांभलो. विवेचन-व्यवहार मां कोई पण वस्तु ग्रहण करवी "होय त्यारे प्रथम चक्षु द्वारा ते वस्तु जीव जुए छे अने पछी ते वस्तु हाथ वड़े ग्रहण करे छे परन्तु आत्मा तो इन्द्रिय अने हाथ रहित छे तो कर्म ने जोई पण शके नहीं अने ग्रहण पण करो शके नहीं, एटले अात्मा कर्म ग्रहण केम करे ? अानो ग्रंथकार श्री प्रत्युत्तर प्रापतां जणावे छे के अात्मानु स्वरूप बे प्रकार नुछे-शुद्ध चैतन्य मय अने अशुद्ध चैतन्य मय. आठ कर्मों नो नाश थया बाद अनन्त ज्ञानमय अनन्त दर्शनमय, अनंत चारित्र मय अने अनन्त वीर्य मय एवु कर्म रूप उपाधि रहित शुद्ध चैतन्य मय अने अनादि काल थी कार्मण शरीर ना योगे आत्मा ना असंख्यात प्रात्म प्रदेशे (अाठ नाणी स्थाने रहेला आत्म प्रदेशो छोडी) अनंत कर्म वर्गणाथी पावरायेल आत्मा नु अशुद्ध चैतन्य मय. औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस अने कार्मण ए पांच शरीरो मां थी कोई पण शरीर आत्मा नी साथे होय या न होय परन्तु कार्मण शरीर ना योगेज आत्मा कर्म ग्रहण करे छे. एटले इन्द्रिय अने हाथ होय या न होय परन्तु इन्द्रिय अने हाथ विना पण कार्मण शरीर ना योगे भविष्य काल मां तेवा प्रकार ना कर्म भोगववाना कारणे तथा संसारी आत्मानो कर्म ग्रहण करवाना स्वभाव ना
SR No.022148
Book TitleJain Tattva Sar Sangraha Satik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherRanjanvijayji Jain Pustakalay
Publication Year1979
Total Pages402
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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