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________________ ( ३५८ ) थाय छे. परन्तु विष्णु आदि ने हाथ अने वाणी नथी. तो हाथ अने मुख विना तपश्चर्यादि नी सेवा नी प्रवृत्ति विः णुए केवी रीते करी ? अने बीजा ने वाणी विना बोध पण शी रीते आपे ? मूलम् तद्धयायियोगिभ्य इयं प्रवृत्ति - स्तत्तंः कुतोऽसौनिगदोपलब्धा ? | अध्यात्मयोगादितिचेत्तदानों, तस्यप्रणेताऽभवदत्रको भोः ? | १० | निरञ्जनैनिष्क्रियकैर्न चाऽयं वक्तु हियोग्यः खलुविष्णुमुख्यः । सोऽध्यात्मयोगः कुत श्राविरासीत्, चेदादियोगिभ्यइतिप्रवादः । तैरप्यसावात्मभवावबोधा दध्यात्मयोगोऽवगतो न चाऽन्यतः । प्रनिन्द्रियान्निष्क्रियकान्निरञ्जना- न्नित्यैकरूपान्नतु विष्णुमुख्यात् गाथार्थ - प्रा सेवा तेना ध्यान करनार श्री थी प्रवर्ती. तेना ध्यान करनाराम्रो ने क्यां थी मली ? तेश्रोने अध्याध्म योग थी मली. तेना प्रणेता कोण ? निरंजन ने निष्क्रिय एवा विष्णु आदि थी प्रयोग रचायो एम कहेवुं योग्य नथी. एथी ग्रा योग क्यांथी प्रगट्यो ? जो आ योग अध्यात्मवादीओ ए आत्म ज्ञान थी जाण्यो अने बीजाथी नही. तेमज अनिन्द्रिय, निष्क्रिय, निरंजन अने एक स्वरूप विष्णु प्रमुख थी पण नहीं.
SR No.022148
Book TitleJain Tattva Sar Sangraha Satik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherRanjanvijayji Jain Pustakalay
Publication Year1979
Total Pages402
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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