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________________ ( ३२६ ) + 5 लिप्यो विभिन्ना इह यद्यपीमा,व्यक्तिःसमैवाऽस्तितुपाठकाले । नुरणांतथाकार्यकृतिःसमस्ता, ताभिःसमानाभवतीत्यवेहि ।१० गाथार्थ:- प्रा लिपिनो जो के अलग-अलग होय छे परन्तु पठन काले सरखी होय छे अने मनुष्यो नु कार्य आथी सरखं थाय छे. विवेचन:-सुगम. घनं किमाकारविजिताना-मिहाक्षराणामियमाकृतिःकृता। प्रस्या अपिस्थापनमन्यदन्यत्,कृतंबुधःस्वस्दसुगुप्तवेदने ॥१॥ गाथार्थ -घणं शं कहिये ? पा संसार मां आकार रहित अक्षरो मी आ आकृति बनावेली छे. ते आकृति नी स्थापना विद्वानोए पोत पोताना सुगुप्त प्राशय जगाववा माटे जूदीजूदी आकृति बनावी छे. विवेचन:- वधारे शें कहिये ? जूदी-जूदी प्राकृतियो बनाववानुं कारण जणाबतां कहे छे के प्राकार रहित एवा अक्षरो नी आकृतियो विद्वान पुरुषोए पोत पोतानो गुप्त आशय जणाववा माटे बनावी छे. पुनश्च रागा अपिशाब्दरुप्या-दाकारमुक्ताश्चतथाऽपितबुधः। तेरागमासाहयपुस्तकेतु,यस्ताकिलाकारमृतःसमस्ता॥१२॥
SR No.022148
Book TitleJain Tattva Sar Sangraha Satik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherRanjanvijayji Jain Pustakalay
Publication Year1979
Total Pages402
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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