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चिन्ह ने एक जोनार न होय परन्तु घरणा जोनार होवा थी मनी वात मान्य थाय छे. परन्तु स्वर्ग ने जोनार घणा नथी माटे ते वात मान्य नथी. तेनो उत्तर हवे बतावे छे.
मूलम्:
युक्तं परं नास्तिकतोघनाजनाः, सन्त्यास्तिकाप्राप्तवचः प्रमारणकाः तत्प्रेत्यदर्शानिवसन्तिभूरिशो, लक्ष्मेक्षवन्नास्तिकवत्तुलक्ष्मवान् । गाथार्थ एवं विवेचन :- नास्तिक प्रत्ये प्रास्तिक प्रत्युतर पे छे के तारी बात सत्य छे. परन्तु जगत मां प्राप्त पुरुषो ना वचन ने मान्य करनार प्रास्तिको घणा छे अने नास्तिको थोड़ा छे. तेवीज रीते चिन्ह ने जोनार नी जेम परलोक ने जोनारा घणा छे, ज्यारे चिन्हह्वाला नी जेम नास्तिक तो एकज छे. माटे घरणा माननारा होय ते वात मान्य होय तो प्रास्तिको घणा होवा थी तारे प्रास्तिको कहे ते वात मान्य राखवी जोइये.
मूलम्:
सत्यं मुने ! तत्फलतोऽपि पृष्ठगं, लक्ष्मावसेयं हि भवेदवश्यम् । परन्तु न स्वर्गपरेतलोको, कयाऽपि बोध्यौ ननु चेष्टयाऽपि । ६ गाथार्थ - हे मुनि, सत्य छे परन्तु चिन्ह छे ते बाबत तेना फल थी जारणवा योग्य छे. स्वर्ग अने नरक विगेरे चेष्टा बड़े पण क्यारेय जाणवा योग्य नथी.