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________________ ( २५२ ) विधिनिषेधःपरमाणुपुद्गलः,कर्माणिसिद्धाःपरमेश्वरस्तथा । इत्यादिशब्देषु न चेष्टयाऽपि,केचित्सुधीभिःप्रतिपादनीयाः।५ किन्त्वेकतः सत्पदतः प्ररूप्याः, तथैककर्णेन्द्रियग्राह्यवर्णाः । स्वस्वस्वभावोत्थिततत्तथाविध-फलानुमेयाःकिलकेवलीक्ष्याः । गाथार्थ:-काल, स्वभाव, भवितव्यता, पूर्वे करेल कमों तथा अद्यम ए पांच समवाय कारण, हृदय मां रहेल वायु, मन, दश प्राण, आकाश, संसार, विचार, धर्म, अधर्म, प्राधि, मोक्ष , नरक, ऊर्ध्वलोक, विधि, निषेध, परमाणु, पुद्गल, कार्यो, सिद्धो, इश्वर इत्यादि शब्दो चेष्टा द्वारा पण केटलाक विद्वानो वड़े प्रतिपादन करवा योग्य नथी. परन्तु सत्पद थी प्ररूपणा करवी तथा एक कानथीज ग्रहण करवा योग्य छे. तेमज पोत पोताना स्वभाव थी उत्पन्न थयेल फल बड़े अनुमान करवा योग्य छे. खरेखर केवली भगवंतो थी जोवा योग्य छे. विवेचन:-सुगम छे. येसन्ति शब्दास्तुपदद्वयादिना,संयोगजास्ते भुविसन्ति वा नो। यथाहिवन्ध्याऽस्तिसुतोऽपिचाऽस्ति,वन्ध्यासुतश्चेतिनयुक्तशब्दः। गाथार्थ:--बे पद आदि संजोग वाला शब्दो वाली वस्तुनो जगत मां होय छे अथवा नथी पण होती. जेमके वंध्या छे अने पुत्र पण छे परन्तु वंध्या-पुत्र नथी.
SR No.022148
Book TitleJain Tattva Sar Sangraha Satik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherRanjanvijayji Jain Pustakalay
Publication Year1979
Total Pages402
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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