SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 244
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( २३३ ) मूलम् सर्वत्र कर्त्रादिपरप्ररणोदनां विनैव द्रव्यादिचतुष्टयस्य । तादृक्स्वभावादिहकर्मरणांत्रयी, भुक्तादिकाऽसौभषिमुक्तजीवग । गाथार्थः सर्वत्र कर्त्ता नी पर प्रेरणा विना द्रव्यादि चतुष्ट ना तेवा प्रकार ना स्वभाव थी भवि ने केवली जीवो ने भुक्तादि त्रण प्रकार नुं कर्म होय छे. विवेचन - भव्य ने केवली भगवंतो ने ऊपर बतावेल मुजब सर्व ठेकाणे कर्त्ता विगेरे बीजा नी प्रेरणा विना द्रव्य, क्षेत्र, काल अने भाव ए चार ना तेवा प्रकार ना स्वभाव थी भुक्त कर्म, भोग्य कर्म अने भुज्यमान कर्म एम र प्रकार नुं कर्म होय छे. मूलम् - सिद्धात्मनां सिद्धतया दशात्रयी, न कर्मरणां तत्कृतपूर्वनाशतः । भुक्ताऽप्यवस्था भवदेषुकेवलि भवावसानंनतदत्रकाऽपिसा ॥५७ गाथार्थ :- सिद्ध थयेल एवा सिद्ध भगवंतो ने पूर्व कर्मो नो नाश थयेल होवाथी ए दशात्रयी होती नथी. भुक्तावस्था पण केवली भगवंत ना आयुष्य ना अंत सुधी होवा थी ते पण सिद्धो ने होती नथी. विवेचन: -- ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र अने अन्तराय एम आठ कर्मो नो
SR No.022148
Book TitleJain Tattva Sar Sangraha Satik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherRanjanvijayji Jain Pustakalay
Publication Year1979
Total Pages402
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy