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( १६० ) गाथार्थ - ते प्रकारे अत्यन्त सांकड़ा पांजरा मां रहेलां चकलां विगेरे पक्षियो वैर युक्त होय छे अथवा जाल आदि बंधन मां रहेलां माछलांगों परस्पर पीड़ा थी वैर युक्त थवाथी अत्यन्त दुःखी होय छे. विवेचन:-तेवीज रीते बीजां दृष्टांतो पण बतावाय छे जेमके अत्यन्त सांकड़ा पांजरा मां रहेल चकलादि पक्षियो अथवा जाल विगेरे मां रहेल एक प्रकार नां माछलां विगेरे परस्पर पीड़ा पामवाथी वैर भाव बांधतां अत्यन्त दुःखी थाय छे. तेम निगोद ना जीवो पण परस्पर पीड़ा पामवाथी वैर भाव बांधी अत्यन्त दुःखी थाय छे. मूलम् । तथा पुनस्तस्करके निहन्य-माने च सत्यामनले विशन्त्याम् । कौतूहलार्थपरिपश्यतांनृणां द्वषंविनोत्तिष्ठतिकर्मसञ्चयः ।३५॥ बुधास्तमाहुःकिलसामुदायिकं, भोमोयदीयो नियतोऽप्यनेकशः। एवंहिचेत्कौतुकतः कृतानां, स्वकर्मणामत्र सुदुर्विपाकः ॥३६॥ अन्योऽन्यबाधोत्थविरोधजन्मना-मनन्तजीवैःकृतकर्मणांतदा । भोगोऽप्यनन्तेऽपगते हिकाले,निगोदजीवनहि जातुपुर्यते ॥३७॥ गाथार्थ:- तेज प्रमाणे चोर हणाये छते अने पतिव्रता स्त्री अग्नि मां प्रवेश करते समये कुतुहल थी जोता छता मनुष्यो ने द्वेष विना पण कर्मनो बंध थाय छे. विद्वान् पुरुषो