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अनादि काल थी निगोद मां रहेला जीवो अनंत काल
पर्यन्त निगोद मां रहे छे, एटले तेस्रोनुं जन्म ने मरण ते निगोद मांज थया करे छे तो कया अशुभ कर्मोना योगे निगोद ना जीवो निगोद मांज रहे छे ? ए प्रश्न थाय ते स्वाभाविक छे. वली निगोद ना जीवो ने जन्म-मरण सतत चालू रहेवा थी कर्म करवानो समय पण मलतो नथी छतां या कर्म ना योग निगोद मां नरक ना जीवो करतां परण अनंत गुणी वेदना निगोद ना जीवो भोगवे छे ? केटलाक जीवो निगोद मां थी निकलो व्यवहार राशि मां आवे छे अने पाछा निगोद मां जाय छे, तेनी व्यवस्था शुं ? अर्थात् कया प्रकारे ? अने क्यां थी प्रगट थाय छे ? आ बधानो प्रत्युत्तर ग्रंथकार श्री तेमने प्रपतां कहे छे के हे बुद्धिमान् ! तमो सुन्दर विचार वाला होवा थी समझ पूर्वक तेनो प्रत्युत्तर सांभलो.
मूलम् -
निगोदजीवेषु सदैव दुःखं, यदस्ति तत्तादृशजातिभावात् । तथाविधक्षेत्रजनिप्रलम्भान् महात्तिदो दर्कतथाप्ररणोदात् |५|
गाथार्थ:- तेवा प्रकार नी जाति ना स्वभाव थी, तेवा प्रकार ना क्षेत्र मां उत्पन्न थवाथी अने दुःख दायक फल