________________
( १६७ ) विवेचन:-ब्रह्म, ज्ञान अथवा ज्योति ए बधा परस्पर प्रालिंगन दईने रहेल होवा छतां एक बीजा परस्पर एकठा केम थई जता नथी, अने एक रही शके तेटली जग्या मां अनंत ब्रह्म, अनंत ज्ञान अथवा अनंत ज्योति रहेवा छतां परस्पर संकड़ामगा केम थती नथी? तेना प्रत्युत्तर मां जणाववान के जेम कोई विद्वान् ना हृदय मां घणा शास्त्रो ना अक्षरो नो संग्रह थयो होवा छतां पण तेना हृदय मां संकड़ामण थती नथी अने अक्षरो एकठा थई जता नथी. तेम ब्रह्म, ज्ञान अथवा ज्योति ए बधा परस्पर आलिंगन दईने रहेल होवा छतां एकठा थई जता नथी अने संकड़ामरण पण थती नथी; एम चतुर अने विद्वान पुरुषो कहे छे. मूलम् - इत्थंहि सिद्ध परिपूरितंशिव-क्षेत्र नसङ्कीर्णमहो! भवेत्कदा । सिद्धास्तथासिद्धपरम्पराश्रिताः,सार्यबाधारहिताजयन्तिभोः११
गाथार्थः-ए प्रमाणे सिद्धो थी पूराएल सिद्ध क्षेत्र सांकडं थतुं नथी अने सिद्ध नी परम्परा थी पाश्रित सिद्धो संकड़ामण अने बाधा रहित जय पामे छे. विवेचनः-जे आत्मामो सकल कर्मो नो क्षय करी मुक्ति मां जाय छे तेमनुं स्थान अने तेयो केवी रीते रहेला छे ते बताववामां आवे छे, ऊर्ध्वलोकमां बार देवलोक, नवग्रेवैयक