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________________ ( ११६ ) कस्तूरिकाचामरदन्तचर्मणे, सारङ्गधेनुद्विपचित्रकान्तकम् । दुर्मारिदुभिक्षकविड्वरादिकं, दुर्जातिदुर्योनिकुकोटपूरितम् ।११ अमेध्यदौर्गन्ध्यकलेवराङ्कितं, दुष्कर्मनिर्मापरणमैथुनाञ्चितम् । समाश्रयद्धातुकृताङ्गिपुद्गलं, सनास्तिकं सर्वमुनीशनिन्दितम् १२ कियत्स्वकीयाह्वयबद्धवरं, कियत्स्व पूजा प्रवरणाङ्गिजातम् । नानात्महिन्दूकतुरुष्कलोकं, कियत्परब्रह्मनिरासहासम् ।१३। षड्दर्शनाचारविचारडम्बरं, प्रचण्डपाषण्डघटाविडम्बनम् । सत्पुण्य पापोत्थितकर्मभोगदं, स्वर्गापवर्गादिभवान्तरोदयम् १४ वितर्कसम्पर्क कुतर्ककर्कशं, नानाप्रकाराकृतिदेवताचनम् । वर्णाश्रमाचीर्णपृथकपथग्वृष, सद्र व्यनिद्रव्यनरादिभेदभृत् ।१५ (सप्तभिः कुलंकम्) गाथार्थ: जो पूर्वोक्त स्वरूप वालू पर ब्रह्म जगत नी रचना करे तो जन्म, मृत्यु, रोग, कषाय, कपट, काम अने दुर्गति ना भय वड़े व्याकुल, परस्पर द्रोह करनारा शत्रुओ थी लक्षित, दुष्ट शिकारी पशुप्रो थी युक्त, शिकार करनार सैनिको थी व्याप्त, दुष्ट चोर अने व्यभिचारीयो ना उपद्रव थी पीड़ित, कस्तूरी, चामर, दांत अने चामडू विगेरे थी हरण, गाय, हाथी अने वाघ ना नाश ने जणावनार, दुष्ट मारि रोग, दुष्काल थी युक्त, दुष्ट जाति अने दुष्ट योनि वाला क्षुद्र जंतुनो थी पूरित, मल, दुगंध, मडदु विगेरे थी
SR No.022148
Book TitleJain Tattva Sar Sangraha Satik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherRanjanvijayji Jain Pustakalay
Publication Year1979
Total Pages402
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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