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________________ ( १११ ) मूलम्ःये योगिनोनिर्मलदिव्यदृष्टय-श्चराचराचारविवेकचिन्तकाः। लब्धाष्टसिद्धिप्रथनाहितेऽप्यहो! ,विचारयन्तोनहिपारमियति३ तथापि येलोकविलोकनक्षमाः, सर्वार्थयाथार्थ्यसमर्थनार्थनाः । सत्केवलज्ञानविशिष्टदृष्टयो,नीरागिणोऽन्योपकृतोपरायरणाः ४ तेत्वीदृशंब्रह्मपरंन्यवेदयन्, निविक्रियं निष्क्रियम प्रतिक्रियम् । ज्योतिर्मयंचिन्मयमीश्वराभिध-मानंदसान्द्र जगतां निषेवितम५ निर्मायऽनिर्मोहमहंकृतिच्युतं, सम्यग्निराशंसमनीहितार्चनम् । महोदयं निर्गुणमप्रमेयकं, पुनर्भवप्रोज्झितमक्षरं यतः ॥६॥ विभुप्रभावत्परमेष्ठयनन्तकं, निर्मत्सरं रोध विरोध वजितम् । ध्यानप्रभावोत्थितभक्तनिर्वति,निरञ्जनानाकृतिशाश्वतस्थिति७ गाथार्थ- निर्मल दृष्टिवाला, स्थावर जंगम रूप संसार ना व्यवहार ना भेद ना चितवन करनारा अने आठ अरिणमादि सिद्धि वाला एवा योगी पुरुषो पण ब्रह्म ना पार ने पामी शकता नथी, तो पण लोक जोवा मां समर्थ, सर्व पदार्थो नी सत्यता ना प्रतिपादक, केवलज्ञानी राग रहित अने परोपकार करवामां तत्पर एवाप्रो ए परं ब्रह्म नु स्वरूप ए प्रमाणे कांछे के परब्रह्म ए विकार रहित, क्रिया रहित, प्रतिकार रहित, प्रकाश रूप, ज्ञानस्वरूप, ईश्वर नाम नु, निरन्तर आनन्द रूप, जगत सेवित, माया रहित,
SR No.022148
Book TitleJain Tattva Sar Sangraha Satik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherRanjanvijayji Jain Pustakalay
Publication Year1979
Total Pages402
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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