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________________ जिनदास का दृष्टांत वाली जूआ आदि क्रीड़ा भी नहीं खेलना चाहिये । कहा भी है कि -- चार रंग वाले पासे वा पटली का खेल, वर्त्तक लावक के युद्ध याने तीतर आदि पक्षियों की लड़ाई के खेल तथा पहेलियों द्वारा प्रश्नोत्तर और यमक पूर्ति आदि न करना चाहिये । 66 विकारयुक्त भाषण तो दूर रहे किन्तु खेल भी नहीं करना चाहिये | यह अपि शब्द का अर्थ है । हु" अलंकारार्थ हैक्योंकि - यह मोह का चिह्न हैं, क्योंकि यह अनर्थदंड रूप है और निरर्थक आरम्भ प्रवृति करने से यहाँ भी अनर्थ होता है, जिनदास के समान । उसको कथा इस प्रकार है-. श्रेणिक राजा रूप राजहंस से सुशोभित राजगृह नगर रूप कमल में गुप्तिमति नामक एक परिमल के समान पवित्र इभ्य था । उसको ऋषभदत्त नामक एक जगद्विख्यात पुत्र था । दूसरा जिनदास नामक जुगारी पुत्र था, वह नित्य द्रव्य-नाशक जुआ खेलता था, तब उसके बड़े भाई ने उसे प्रीतिपूर्वक यह कहा कि- हे भाई! शरीर और स्वजनादिक के कारण जो करना पड़ता है सो अर्थदंड है और उससे अन्य ( प्रतिकूल ) सो अनर्थदंड है । वह बहुत बंध का कारण कहा हुआ है । क्योंकि कहा है कि - अर्थ से उतना पाप नहीं बंधता, जितना कि अनर्थ से बंधता है- क्योंकि अर्थ से थोड़ा करना होता है और अनर्थ से बहुत हो जाता है क्योंकि अर्थ में तो काल आदि नियामक रहता है परन्तु अनर्थ में कुछ भी नियामक नहीं ।
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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