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________________ धनमित्र का दृष्टांत यहां यह समाचारी है- श्रावक को यद्यपि अन्तःपुर में तथा किसी के भी घर में जाने में कुछ भी बाधा नहीं होती, तथापि उसने अकेले परगृह में नहीं जाना चाहिये । आवश्यकता पड़ने पर भी वहां बड़े मनुष्य के साथ प्रवेश करना चाहिये। गाथा के प्रथम दल में जैसे गुरु सत्तगण (गुरु अक्षर सहित सात गण) होते हैं, वैसे गुरु सत्तगग याने महा सत्त्व (साहस ) वाले मंडलों वाला विनयपुर नामक नगर था। वहां वपु नामक सेठ था और उसकी भद्रा नामक स्त्री थी। । उनका धनमित्र नामक पुत्र था, उसकी बाल्यावस्था ही में उसके माता-पिता मर गये. वैसे ही पुण्य रूप मेघ नष्ट होने से नदी के प्रवाह के समान धन भी नष्ट हो गया । उस बालक को उसके परिजनों ने भी क्रमशः छोड़ दिया, जिससे वह दुःख से वड़ा हुआ तथा निर्धन होने से कोई भी उसे कन्या नहीं विवाहता था। तब वह लजित होकर द्रव्योपार्जन को तृष्णा से नगर से रवाना हुआ। मार्ग में उसने किसी स्थान पर किंशुक ( केसुड़ी) के वृक्ष पर प्रारोह- उत्पन्न हुई वनस्पति विशेष देखा। तब उसे खान को बात जो कि उसने पहिले सुनी थी, सो याद आई. वह इस प्रकार है कि- जो अक्षीर झाड़ में प्ररोह बैठा हुआ दीखे तो उसके नीचे धन गड़ा हुआ जानो। बिल व पलाश के वृक्ष पर स्थिर और बड़ा प्ररोह हो तो वहां बहुत धन होता है, छोटा प्ररोह हो तो थोड़ा धन होता है । वैसे ही रात्रि को वहां.. बोले तो बहुत धन होता है और दिन में बोलता हो तो थोड़ा धन होता है । प्ररोह को जख्म करते जो उसमें से लाल रस निकले तो वहां रत्न होते हैं, जो सफेद रस निकले तो चांदी होती है, जो पीला रस निकले तो सुवर्ण होता है और जो
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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