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________________ ६० शीलवंत का स्वरूप उपासक दशा सूत्र से जान लेना चाहिये । इस प्रकार व्रत कर्म सेवन रूप चौथा भेद कहा, उसके कहने से प्रथम क्रत व्रतकर्म रूप लक्षण उसके भेद सहित समर्थित किया अब शील वन्त रूप दूसरे लक्षण की व्याख्या करते हैं । २ आययणं खु निसेवइ' वजह परगेहपविसणमकज्जे । निच्च मणुमडवेसो न भणः सवियारवयणाई || ३७ ॥ परिहरड़ बालकील साहइ कजाई महुरनीईए' । इय छन्हिसील प्रोविन ओ सीलवतोऽस्थ ॥ ३८ ॥ , मूल का अर्थ :-- आयतन सेवे, बिना प्रयोजन परगृह प्रवेश नहीं करे, सदैव अनुद्भट वेश रखे विकार युक्त वचन न बोले, बालक्रीड़ा का त्याग करे, मधुर नीति से काम की सिद्धि करे, इस प्रकार छः भांति से शील से जो युक्त हो वह यहां शीलवन्त श्रावक जानो । टीका का अर्थ :-- आयतन याने धार्मिक जन मिलने के स्थान -- क्योंकि कहा है कि:-- “ जहां शीलवन्त, बहुश्रुत और चारित्र के आचार वाले बहुत से साधर्मी बन्धु रहते हों उसे आयतन जानना चाहिये” खु शब्द अवधारण के लिये है, वह प्रतिपक्ष के प्रतिषेधार्थ है, जिससे यह अर्थ निकलता है कि, भाव श्रावक आयतन ही को सेवे -- अनायतन को नहीं । ( क्योंकि कहा है कि, ) भीलों को पल्लियों में नहीं रहना, चोरों के निवास में नहीं रहना, पर्वतवासी लोगों में नहीं रहना, वैसे ही हिंसक व दुष्ट बुद्धि लोगों के पड़ौस में नहीं रहना क्योंकि सुपुरुष को कुसंगति करने की मनाई है । व जहां दर्शन
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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