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________________ अनर्थदंड विरमण व्रत का वर्णन 35 यहां कोई यह कहे कि - अंगार कर्म तो खर कर्म रूप ही है । अतः जिसने खर कर्म का प्रत्याख्यान किया हो, उसने इसका भी प्रत्याख्यान कर ही लिया है, अतः वह करते भंग ही माना जाता है, अतिचार कैसा ? ३५ उसको यह उत्तर है कि -जान बूझ कर करे तो भंग ही है और अनाभोगादिक से उसमें प्रवृत्त होवे तो अतिचार गिना जाता है । इस प्रकार उपभोग परिभोग व्रत कहा, 'अब अनर्थदंड विरमण व्रत कहते हैं वहां अर्थ याने प्रयोजन, वह जहां न हो सो अनर्थ और दंड वह जिससे आत्मा दंडित हो, अर्थात् पापबंधादिरूप निग्रह सो अनर्थ दंड | अनर्थ याने निष्प्रयोजन अपने जीव को दंड देना, सो अनर्थ दंड, वह चार प्रकार का है: - अपध्यान, प्रमादाचरित, हिस्रप्रदान और पापकर्मोपदेश, इन चार प्रकार के अनर्थ दंडों से विरमण सो अनर्थ दंड विरमण है । अपध्यान वह है कि - जिसमें कब साथ जाता है ? क्या माल ले जाता है ? कहां जाता है ? कितने स्थान हैं ? लेनदेन का कौनसा समय है ? कहां क्या २ वस्तु आती है ? कौन लाता है ? इत्यादि अंडबंड निष्प्रयोजन चितवन किया जाय । प्रमाद याने मद्य, विषय, कत्राय, निद्रा और विकथा उनसे अथवा उसका आचरण सो प्रमादाचरित अथवा आलस्य में रहकर कर्त्तव्य भूलना सो प्रमादाचरित जानो । वह प्रमादाचरित बहुजीव के उपघात का कारणभूत है और वह यह है कि- घी, तैल के बरतन खुले रखना इत्यादि । ।
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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