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________________ पृथ्वीचन्द्र राजा की कथा ३३३ रह सकता। किन्तु यह आश्चर्य तेरे चित्त को किस हिसाब में आकर्षित करता है ? तू वहाँ जावेगा तब इससे भी अधिक आश्चये देखेगा। इस भांति यथावत् श्रवण कर गुरु को नमन करके मैं यहाँ आया हूँ और अभी आश्चर्य करने वाले आपके पास उपस्थित हुआ हूँ। यह सुन महान गुणानुराग के बल से पृथ्वीचन्द्र राजा आनंदपूर्ण चित्त हो यह सोचने लगा कि-सचमुच में वह महानुभाव महामुनि गुण ही का सागर है कि-जिसने मोह का अनुबंध तोड़कर देखो ! अपना काम किस प्रकार सिद्ध किया ? मोह की दृढ़ • बेड़ियों को तोड़ने वाले भाग्यशाली पुरुषों को अत्यन्त उत्तम भोग सामग्री भी धर्म करने में अन्तराय नहीं कर सकती। अरे ! मैं जानता हुआ इस राज्यरूप कूट-यंत्र में गुरुजन की दाक्षिण्यता के कारण सामान्य हाथी के समान फंस गया हूँ। कब मैं झपाटे से भोगोपभोग को छोड़ने वाले धर्मधुरंधर मुनियों की गिनती में गिना जाऊंगा? ___कब मैं गुरु के चरणों में प्रणाम करके ज्ञान चारित्र का भाजन होऊंगा? कब मैं उपसर्ग और परेषहों की पीड़ाओं को भलीभाँति सहन करूंगा? इत्यादिक सोचता हुआ वह महात्मा अपूर्व-करण के क्रम से शिव-पद पर चढ़ने को निणी समान क्षपक-श्रेणी पर चढ़ा । वहां शुक्लध्यान रूप धन से उसने क्षणभर में घनघाति कर्मों को तोड़कर उत्तम केवलज्ञान प्राप्त किया । अब वहां सौधर्मपति आकर, उसे द्रव्यलिंग देकर, चरणों में नमन कर केवल महिमा करने लगा। ___ यह देख राजा हरिसिंह पद्मावती के साथ, यह क्या हुआ? यह क्या हुआ ? इस प्रकार बोलता हुआ वहाँ आ पहुँचा । तथा
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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