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________________ ३१८ प्रदेशी नृप चरित्र राध खमा, हर्षित होकर घर आया और केशि गणधर अन्यत्र विचरने लगे। पश्चात् चित्र मंत्री की सलाह से प्रदेशी राजा ने अपने देश को जिन मन्दिरों की श्रेणी से विराजित किया। तथा सामायिक, पौषध आदि धर्म कृत्यों में सदैव लीन रहकर, दूसरे भी अनेक लोगों को जैन-धर्म में प्रवृत्त करने लगा। . . वह विषय सुख को विष समान जानकर स्त्री संग से दूर रहता था। जिससे दुर्धर-काम से पीड़ित हो उसकी रानी सूर्यकान्ता मन में विचार करने लगी। यह राजा स्वयं भोग नहीं भोगता और मुझे अपने वश में रखता है, अतः यह कहावत सत्य है कि-न मरता है न छोड़ता है । इसलिये इसको कोई भी विष आदि उपाय से मार डालू तो पुत्र को राज्य पर बिठाकर, मैं अपनी इच्छानुसार भोग विलास कर सकूगी। दूसरे दिन सूर्यकान्ता ने पौषध के पारणे महाराजा के भोजन में विषम वित्र मिलाकर खिलाया। जिससे राजा के शरीर में असा जलन होने लगी, तब उसे ज्ञात हुआ कि-सूर्यकान्ता ने यह विष दिया है । अब वह मरने का समय आया जान, अणुबतों का पुनः उच्चारण कर अपने को समझाने लगा कि-हे आत्मन् ! सर्व सत्वों से मित्रता का । तथा तू किसी पर भी रोष मत कर घ सूर्यकान्ता पर तो कदापि रोष मत कर, क्योंकि-यह कार्य करके उसने तुझे दुःख देने वाली स्नेह को बेड़ी तोड़ी है। हे जीव ! जो अवश्य वेदनीय कर्म नरकादिक में लाखों दुःख देने वाला हो जाता उसे यही क्षपवाने वाली, यह तेरी उपकारक है। हे आत्मन् ! जो इस पर भी कोप करेगा तो तू कृघ्नियों का प्रमुख गिना जावेगा । तथा इस अनन्तसंसार में
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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