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मध्यस्थता पर
___ हे भव्यो ! चोल्लक पाशक आदि दृष्टान्तों से दुर्लभ मनुष्य जन्म पाकर तुम आदर पूर्वक सकल सुख के हेतु धर्म ही को करते रहो।
यह सुनकर उक्त चालाक मंत्री ने केशिकुमार से सम्यक्त्वमूल श्रावक-धमे अंगीकृत किया और कहने लगा कि हे पूज्य, आप जो विहार संयोग से श्वेतविका में पधारे, तो वहां आप पूज्य पुरुष की उत्तम देशना सुनकर व किसी प्रकार हमारा स्वामी प्रदेशी राजा धर्म प्राप्त करे तो अत्युत्तम हो। तब केशि गणधर बोले कि- वह तो चंड, निष्करुण, निर्धर्मी, पाप कर्म में मन रखने वाला, इसी लोक में लिप्त, परलोक से पराङ मुख और क्रूर है।
___ अतएव हे मंत्री ! तू तेरी बुद्धि से विचार कर कि-उसे किस प्रकार प्रतिबोध हो सकेगा ? तब पुनः मंत्री बोला कि-हे मुनीश्वर! आपको कहां यह अकेले ही का कार्य है ? वहां बहुत से दूसरे भी सेठ, सरदार, तलवर आदि रहते हैं । जो सुसाधुओं को वसति, पीठ, फलक आदि देते रहते हैं। और सदैव उनका सत्कार सन्मान करते हैं। अतः उन पर आपने कृपा करना चाहिये । तब गुरु वोले कि-हे मंत्रिन् ! समय पर ध्यान दूगा।
अब एक समय केशिकुमार सूर्य के समान भव्यकमलों को जगाते हुए श्वेतविका नगरी में पधारे। तब चित्र के रखे हुए मनुष्यों ने उसे वधाई दी कि यहां केशी गणधर पधारे हैं। यह सुन चित्र इस भांति प्रसन्न हुआ जैसा कि-दरिद्र, निधि पाकर हर्षित होता है । पश्चात् वहीं रह सूरि को प्रणाम करके मन में विचार करने लगा कि- हमारा यह राजा बहुत पापी और प्रबल मिथ्यात्वी है।