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________________ दूसरे व्रत के अतिचार _ कोई पूछे कि- ऐसा होते भी न्यासापहार तो अंदत्तादान गिना जाता है, अंतः उसे यहां लेंना अनुचित है। उसका उत्तर यह है कि- उसमें अपलाप वाक्य बोलनां मृषावाद है, अतः उसे यहां लेने में कुछ भी बाधा नहीं। यहाँ भी पाँच अतिचार वर्जनीय हैं यासहसाभ्याख्यान, रहसाभ्याख्यान, स्वदारामंत्रभेद, मृषोपदेश और कूटलेख्यकरण. उसमें सहसा याने बिना विचारे अभ्याख्यान याने मिथ्या दोष लगाना. जैसे किं-तू चोर है अथवा पारदारिक (व्यभिचारी) है इत्यादि। . रहसा याने एकान्त के कारण अभ्याख्यान करना याने कि:गुप्त सलाह करते देखकर कहना कि- यह मन्त्र मैंने जान लिया है, ये अमुक राजविरुद्धं आदि की सलाह करते हैं। ... यहां कोई पूछता है-भला, अभ्याख्यान याने असंत् दोष लगाना तो मृषावाद ही है, अतः उनसे तो व्रत भंग ही होता है, तो उनको अतिचार कैसे मानते हो? . इसका उत्तर यह है कि- जब दूसरे को हानि करने वाला वाक्य अनाभोगादि कारण से बोल दिया जाय तब बोलने वाला असंक्लिष्ट परिणामी होने से व्रत से निरपेक्ष नहीं माना जाता, अतः इस हिसाब से वह व्रत भंग नहीं कहा जाता, वैसे ही वह दूसरे को हानि होन का हेतुरूपं होने से भंग भी है, अतः अतिचार गिना जाता है, और जब तीव्र संक्लेश से. अभ्याख्यान करने में श्रावे, तब तो व्रत के निरपेक्षपन से वह भंग ही है। कहा है कि- सहसब्भक्खाणाई-भणंतो जइ करेज तो भंगो। जइ पुण णाभोगाई-हिंतो तो होई.अइयारो॥१॥
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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