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चैत्यवंदन की विधि
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__प्रणिधान में १५२ वर्ण हैं और नवकार, खमासमण, हरियावही, शक्रस्तव, चैत्यस्तव, नामस्तव, श्रु तस्तव, सिद्धस्तव और प्रणिधान में क्रमशः सात, तीन, चौवीस, तैतीस, उन्तीस, अट्ठावीस, चौंतीस, उन्तीस, और बारह गुरु वर्ण अर्थात् संयुक्त. अक्षर हैं।
पांच दंडक सो शकस्तव, चैत्यस्तव, नामस्तव, श्र तस्तव, और सिद्धस्तव है। उसमें क्रमशः दो, एक, दो, दो और पांच मिलकर बारह अधिकार हैं ।
बारह अधिकार के प्रथम पद इस प्रकार हैं-नमु, जेइअ, अरिहं, लोग, सव्व, पुक्ख, तम, सिद्ध, जो देवा, उज्जि, चत्ता, वेयावच्चग । चार वंदनीय सो जिन, श्रुत, सिद्ध और मुनि हैं। देवता स्मरण करने योग्य हैं । चार प्रकार के जिन-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव भेद से जानो । नाम जिन जिनके नाम हैं। स्थापना जिन उनकी प्रतिमा है। द्रव्य जिन उनके जीव हैं और भाव जिन समवसरण में बैठे हुए जीव हैं।
पहिले अधिकार में भाव-जिन की वंदना की है, दसरे में द्रव्य-जिन को वंदना की है, तीसरे में एक चैत्य में रहे हुए स्थापना-जिन की वंदना की है, चौथे में नाम-जिन की वंदना की है, पांचवें में तीनों भुवनों के स्थापना-जिनों की वंदना की है, छ8 में विहरमान-जिनों की वंदना की है, सातवे में श्र तज्ञान की वंदना की है और आठव में सर्व सिद्ध की स्तुति की है। __नवमें अधिकार में तीर्थाधिपति वीर प्रभु की स्तुति है, दशवे में उज्जयंत (गिरनार) की स्तुति है, और ग्यारहवें में अष्टापद की स्तुति है और बारहवे में सम्यगृदृष्टि देवता का स्मरण है।