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________________ २४८ सम्यक्त्व पर हे माता! अब मुझे जिन और जिनमुनि के अतिरिक्त दूसरे देव-देवीयों में देव-गुरु की बुद्धि धरना अथवा नमस्कार करना नहीं कल्पता । मुझे उनसे लेश मात्र भी द्वष नहीं, वैसे ही भक्ति भी नहीं किंतु उनमें देवगुरु के गुग न होने से उन पर मेरी उदासीनता है । राग, द्वेष और मोह के अभाव से देव का देवत्व सिद्ध होता है । यह उसके चरित्र आगम और प्रतिमा के दर्शन ही से ज्ञात हो जाता है। मोक्षसाधक गुणों के गौरव से और सम्यक रीति से शास्त्रार्थ कहने से गुरु का वास्तविक और प्रशस्त गुरुत्व माना जाता है। ___ अतः हे भाता ! जिन को नमन करने के बाद तीनों भुवनों में दूसरे को कैसे नमन किया जाय ? क्योंकि-क्षीरसागर का पानी पीने के बाद लवणसागर का पानी कैसे अच्छा लगे । इस प्रकार उसके उत्तर देने से उसको माता उदास होकर चुप हो रही। अब कुल देवी उस पर क्र द्ध होकर उसे सैकड़ों भय दिखाने लगी। किन्तु वह सत्त्ववान् और धर्मपरायण अमरदत्त पर कुछ भी नहीं कर सकी। जिससे वह उस पर विशेष प्रद्वष रखने लगी। अब वह देवी एक समय प्रत्यक्ष होकर उसे इस प्रकार धमकाने लगी कि-अरे ! असत्यधर्म में गर्वित ! तू मुझे भी नमन नहीं करता। मैं अब तुझे मार डालूगी, तब हद-धर्मी अमरदत्त उसे कहने लगा कि-जो आयु बलवान हो तो तू मार नहीं सकती। अगर आयुष्य ही टूट गया हो तो फिर दूसरी भांति भी मरना हो पड़ता है, अतः करोड़ों भव में दुर्लभ, निर्मल सम्यक्त्व को कौन मैला करे। तब उस कुपित हुई पापिणी अमरा ने उसके शरीर में, सिर की, आंख की, कान की और पेट की तीव्र वेदनाएं उत्पन्न की ।
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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