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________________ २३० निरारंभ भाव पर. तब स्वयंभूदत्त विचारने लगा कि-आज मेरा नया जन्म हुआ, और आज ही मैंने सर्व संपदा पाई । यह सोच कर वह झट वहां से रवाना हुआ। ___ वह भयंकर भीलों के भय से ध्र जता हुआ पर्वत के दरें के बीच से बहुत से झाड़ और लताओं से छाये हुए आड़ रास्ते चला । वहां उस काले सपे ने डसा जिससे उसे महा घोर वेदना होने लगी। तब वह विचार करने लगा कि-अब तो मेरा नाश ही होता जान पड़ता है। क्योंकि जैसे वैसे मैं भीलों से छूटा तो इस कृतान्त समान सपे ने मुझे डसा अतः दैव अलंघनीय है। ___ जन्म मरण के साथ जुड़ा हुआ है, यौवन जरा के साथ सदैव जुड़ा हुआ है और संयोग वियोग के साथ जुड़ा हुआ उत्पन्न होता है। अतः इस विषय में शोक करना व्यर्थ है। यह सोचता हुआ वह धीरे धीरे कुछ ही आगे गया होगा कि उसने तिलक वृक्ष के नीचे एक चारण मुनि को देखा। ... "हे मुनींद्र ! विषम सर्प विष से मैं पीड़ित हूँ। मुझे आप ही शरण हो,” वह बोलता हुआ वह मुनि के सन्मुख अचेत हो कर गिर पड़ा। इतने में वे मुनि गरुडाध्ययन का स्मरण कर रहे थे। उसके बल से गरुड़कुमार का आसन कंपायमान होने से वह मुनि को वरदान देने के लिये वहां आ पहुँचा । तब सूर्योदय से जैसे अंधकार का नाश होता है, उसी भांति उस महा सर्प का विष उतर गया, और स्वयंभूदत्त मानो सो कर उठा हो उस भांति स्वस्थ शरीर से उठ कर खड़ा हो गया। अब अध्ययन समाप्त होने पर गरुड़कुमार हर्षित हो कर कहने लगा कि-हे मुनीश्वर ! वर मांग-तब मुनि बोले कि-तुमे धर्मलाभ
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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