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________________ विषय विपाक पर आप सबसे अधिक करुणावान और अशरण शरण हो, तो हम शरणागत हैं, कृपा कर हम को तारो व पालो । २२४ यक्ष बोला ! "तथास्तु" किन्तु तुमको मेरी पीठ पर चढ़े हुए देख कर समुद्र में वह क्षुद्र व्यंतरी शीघ्र आकर नरम गरम और श्रृंगारपूर्ण वचनों से तुम्हारा मन हरेगी। उस समय जो तुम उस पर अनुराग लाकर नजर से भी उसको देखोगे तो मैं अपना पीठ से गिरा कर तुम को दूर फेंक दूरंगा । और जो उसके साथ नहीं लुभाओगे और विषयसुख की अपेक्षा नहीं रखोगे तो मैं तुम्हें अतुल लक्ष्मी के भाजन करूगा । तब उन्होंने उसका वचन, आज्ञा और विनय से तहत्ति करके कबूल किया। तब सेलक यक्ष घोड़े के रूप में होकर, उन दोनों को पीठ पर चढ़ा कर चला । इतने में वह व्यंतरी अपने स्थान पर आकर देखने लगी, तो वे उसे न दीखे । तब वह अवधि से देखने लगी, तो वे उसे लवण समुद्र में दीखे । जिससे कोप वश जलती हुई आकाश मार्ग से उनके पास आई । वह बोली कि - अरे दुष्टों ! मुझे छोड़ कर सेलक के साथ कैसे जाते हो ? अरे अनार्यों ! अभी तक तुमने मेरा स्वरूप नहीं जाना ? जो तुम सेलक को छोड़ कर पुनः शीघ्र ही मेरी शरण में नहीं आओगे तो इस नंगी तलवार से तुम्हारे सिर काट लूंगी। इस प्रकार कठोर वाणी से उनको क्षुभित करने में वह असमर्थ हो गई, तब शृंगारपूर्ण वाणी से बोलने लगी । अरे ! मैं तुम्हारी एक मात्र हितकर्त्ता, भक्त, सरल और स्नेहवाली थी । इसलिये हे नाथों ! तुमने मुझे अनाथ करके क्यों छोड़ दिया ? इसलिये कृपा कर इस विरहातुर को आपके संगमरूप जल से पूर्ण शान्त करो ।
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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