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________________ अभयकुमार का दृष्टांत १८९ यह सुन उनको लेने के इच्छुक जन डरते हुए ऊंचे कान से सिंहनाद सुनकर जैसे हिरन खड़े रहते हैं, वैसे स्थिर हो खड़े रहे । अभय बोला कि-विलम्ब क्यों करते हो ? वे बोले कियह लोकोत्तर कार्य है, इसे कौन कर सकता है ? . ___ अभय बोला कि उक्त मुनि ने ये तीनों बातें छोड़ दी हैं, अतः उन दुष्कारक पर तुम किस लिये हँसते हो ? लोग बोले कि-हे स्वामी! उन ऋषि के सत्व को हम जान न सके, अतएव हे महामति मंत्री ! अब से उनको हम पूजेगे। पश्चात् श्रीमंत होते हुए वे अभयकुमार के साथ में जाकर उक्त मुनि को नमन करके बारंबार अपना अपराध खमाने लगे। इस समय जैन शासन के अर्थ में कुशल अभयकुमार ने भोले जनों को जिन भाषित धर्म में स्थापित किया । इस प्रकार पाप मल के नाशक अभयकुमार के उज्वल चारित्र को सुनकर हे सज्जनों! तुम सर्व मंगलकारी प्रवचनार्थ कुशलता सदैव धारण करो। इस प्रकार अभयकुमार की कथा पूर्ण हुई। इस प्रकार व्यवहार कुशल रूप छठा भेद कहा, उसके पूर्ण होने से प्रवचन कुशल रूप भाव श्रावक का छठा लिंग पूर्ण हुआ, अतएव उसका उपसंहार करते हैं । एसो पवयणकुसलो हुन्भेषो मुणिवरेहि निद्दिट्ठो। किरियागयाई छ च्चिय लिंगाई भावसढस्स ॥ ५५ ॥ मूल का अर्थ-मुनिवरों ने छः भेद का यह प्रवचन कुशल कहा, इस तरह भाव श्रावक के क्रियागत अर्थात् क्रिया में जाने हुए ये छः लिंग ही है।
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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