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________________ पद्मशेखर राजा का दृष्टांत १६३ इस प्रकार वाचाल होकर वह धर्माभिमुख जनों को बहकाता था, जिससे राजा ने उसे प्रतिबोधित करने के लिये निम्न उपाय को योजना की । उसने यक्ष नामक अपने सेवक को कहा किःविजय के साथ मित्रता करके उसके रत्न-करंडक में मेरा यह अलंकार पटक आ। तब यक्ष ने भी वैसा ही करके राजा को खबर दी, तब राजा ने नगर में पड़ह बजवाते यह घोषणा कराई कि- जिसको किसी भी प्रकार राजा का आभरण मिला हो, वह इसी समय दे देगा तो दोषी न होगा, अन्यथा उसे शारीरिक दण्ड दिया जावेगा ऐसी तीन बार घोषणा कराई। __ पश्चात् पुरजनों के साथ अपने पुरुषों को कहा कि-प्रत्येक घर को झड़ती लो। तदनुसार उन्होंने प्रत्येक घर की झड़ती लेते हुए उसे विजय के घर में देखा और उसे पूछा कि- यह क्या किया ? ___ वह बोला कि- मैं नहीं जानता। वे बोले कि- चोरे हुए को भी नहीं जानता ? यह कहकर वे उसे राजा के पास लाये, तो राजा ने उसे मार डालने की आज्ञा दी। वह प्रकटतः चोर जाना गया, इसलिये किसी ने भी उसे नहीं छुड़ाया। तब विजय दीन होकर यक्ष से कहने लगा: हे मित्र ! तू राजा को विनन्ती करके चाहे जैसा दुष्कर दंड निश्चित करके भी मुझे प्राणदान दिला । तब यक्ष राजा को कहने लगा कि-हे देव ! चाहे जो दण्ड करके भी मेरे मित्र को क्षमा करिए । तब राजा बोला कि- जो तेरा मित्र मारा जाकर सुगति को जावे, यह तुमे क्यों नहीं अच्छा लगता है ? ____ वह बोला कि-ऐसी सुगति नहीं चाहिये, जीवित मनुष्य भद्र देखता है अतः प्राणभिक्षा दीजिए । तब राजा क्र द्ध ही के समान रहकर बोला किः--
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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