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________________ १४६ हरिनन्दी का दृष्टांत वे बोले कि पहिले के साथ सेठ बोला कि तब आकर देखो तब वे प्रसन्न होकर उसके साथ मार्ग में चले वहां बैल, घोड़े आदि न देखकर वे पूछने लगे कि वह सार्थवाह कहां है ? सेठ बोला कि अशोक वृक्ष के नीचे बैठे हैं, उन्हें देखो। तब वे विस्मित हो मुनि को प्रणाम करके वहां बैठे पश्चात् सेठ मुनि को नमन करके पूछने लगा कि यहां उत्तम सार्थवाह कौन है ? साधु बोले यहां द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार के सार्थवाह होते हैं उनमें पहिला स्वजन वर्ग है जो कि अपना पोषण प्राप्त करने में लीन है । वह दुखित जीव को कुछ भी सुकृत रूपी धन नहीं देता और परभव के मार्ग में चलते उसके साथ एक कदम भी नहीं भरता। ___ वह क्लेश-कलह करके उपार्जित सुकृत को भी हरण कर लेता है, अब दूसरे सार्थवाह गुणरत्न युक्त सुगुरु हैं। वे जिन-शासन रूप पवित्र आगर में उत्पन्न हुए निर्मल तेजवान् अपने पंचमहावत रूप रत्न सम्यक् रीति से देते हैं। उन पांच रत्नों के द्वारा जो सुखकारी सुकृत द्रव्य उपार्जन किया जाता है, उसे वे कदापि नहीं लेते और क्रमशः मुक्ति नगर को पहुँचाते हैं। ___ यह सुन हरिनन्दी ने संवेग पाकर श्रमण धर्म ग्रहण किया और उसके स्वजन भी यथाशक्ति धर्म अंगीकार करके घर गये। अब हरिनन्दी परवंचन क्रिया रूप नदी का शोषण करने में सूर्य समान हो, सक्रिया करके अनुक्रम से अक्रिय स्थान को पहुंचा। ___ इस प्रकार हरिनन्दी के समान हे जनों ! तुम पाप रूप अंधकार की अमावस्या की रात्रि समान परवंचन क्रिया का त्याग करके सक्रिया वाले होकर क्रिया के इच्छुक रहो। इस प्रकार हरीनन्दी की कथा है।
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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