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________________ भावश्रावक का ऋजुव्यवहार रूप चौथा लक्षण का स्वरूप १३५ अट्ठम दशम आदि विचित्र तप कर्म से आत्मा की भावना करते हुए विचरते हैं। इसी प्रकार उद्योग और आलस्य भी जानो, विशेषता यह है कि-ऐसे उद्योगी जीव आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, शैक्ष, ग्लान, तपस्वी, कुल, गण, संघ और साधर्मि के वैयावृत्य से अपने को जोड़ते हैं। ___इस प्रकार जिनेश्वर के मुखकमल से निकले हुए सूक्ष्मार्थ रूप मकरंद को भ्रमरी के सदृश रुचि पूर्वक जयंती अमृत के समान पीती थी, अब वह दृढ़ सम्यक्त्व वाली जयंती भव से विरक्त होकर, उदयन को पूछ, सर्व सावध का त्याग कर, प्रव्रज्या ले, एकादश अंग सीखकर, मनोहर श्रद्धा व निर्मल चरित्र का पालन कर कर्म जाल तोड़कर सुखपूर्ण स्थान को प्राप्त हुई। इस प्रकार अग्नि समान पवित्र रुचि को धारण करती हुई जयंती ने शिवसुख प्राप्त किया, इसलिये तुम भी संसार के भय से डरकर उस विषय में सर्व प्रयत्न से आशय बांधो। इति जयंती कथा इस भांति गुणवान का जिनवचनरुचिरूप पांचवा भेद कहा व तीसरा गुणवानपन रूप भावभावक का लक्षण कहा, अब ऋजु-व्यवहार रूप चौथा लक्षण कहते हैं । '' उजुववहारो च उहा जहत्थभणणं अवंचिगा किरिया । हुतावायपगासण मित्तीभावो य सम्भावा ।। ४७ ।। मूल का अर्थ-ऋजु व्यवहार चार प्रकार का है-- यथार्थमाषण, अवंचक क्रिया, वर्तमान अपराध का प्रकाश और सद् मित्रता।
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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