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________________ जयंती श्राविका का दृष्टांत १३३ स्वलिंग सिद्ध तथा जो एक एक समय में सिद्ध होता है, वह एक सिद्ध और एक समय में अनेक सिद्ध हों वे अनेक सिद्ध. ( ऐसे सिद्ध के पन्द्रह भेद हैं) हे जयंती : ऐसी उल्लसित युक्ति के जोर वाला श्रुत विचार नित्य जिसको रुचता है, वह कमाँ से झट मुक्त हो जाता है । तब वह जयंती श्रमणोपासिका श्रमण भगवान महावीर से धर्म सुनकर हर्षित हो, उनको वन्दना व नमन करके इस प्रकार पृछने लगी। हे पूज्य ! जीव गुरुत्व कैसे पाते हैं ? । हे जयन्ति ! प्राणातिपात और यावत् मिथ्यादर्शन शल्य से। हे पूज्य ! भवसिद्धित्व जीवों को स्वभाव से होता है किपरिणाम से ?। हे जयन्ती ! स्वभाव से, परिणाम से नहीं।। हे पूज्य ! क्या सर्व भवसिद्धि जीव सिद्धि पावेंगे। हां ! यावत् सिद्धि पावेंगे। जब हे पूज्य ! सर्व भवसिद्धि जीव सिद्ध हो जावेंगे, तब लोक उनसे खाली हो जावेगा क्या ? नहीं, ऐसा नहीं होता। हे पूज्य ! यह क्या कहते हो कि-सर्व भवसिद्धि जीव सिद्ध हो जावेंगे तो भी उनसे लोक खाली नहीं होगा। जैसे एक सर्वाकाश को श्रेणी हो अनादि अनंत एक प्रदेशिनी होने से विष्कभ रहित परिमित और अन्य श्रेणियों से परिवृत श्रेणी होती है, वह परमाणु पद्गलोंमय स्कंधों से समय समय खींचते जावे, तो अनंतउत्सर्पिणी, अवसर्पिणियां जाते भी
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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