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चक्रदेव की कथा
पराभव रूप दावानल से उसका शरीर जलने लगा. जिससे वह सोचने लगा कि अब मान भ्रष्ट होकर मेरा जीवित रहना किस काम का है ? कहा भी है कि
प्राण छोड़ना उत्तम, परन्तु मान भंग सहन करना अच्छा नहीं, कारण कि प्राण त्याग करने में तो क्षण भर दुःख होता है, परन्तु मान भंग होने से प्रतिदिन दुःख होता है। ___ यह विचार कर नगर के बाहर एक वट वृक्ष में उसने अपने गले में फांसी दी, इतने में उसके गुण से पुरदेवता ने शीघ्र उस पर प्रसन्न होकर राजमाता के मुख में स्थित हो चक्रदेव के फांसी लेने तक का वृत्तान्त कहा, जिससे दुःखित राजा सोचने लगा__उपकारी व विश्वस्त आर्यजन पर जो पाप का आचरण करे, वैसे असत्य प्रतिज्ञा वाले मनुष्य को हे भगवती वसुधा ! तू कैसे धारण करती है।
(नगर देवता ने ऐसा विचार राजा के मन में प्रेरित किया) जिससे राजा ने यह विचार कर पुरोहित पुत्र को शीघ्र पकड़वा कर कैद किया और स्वयं सार्थवाह के पुत्र का पीछा कर वहां उसे फांसी लेते देखा। राजा ने तुरन्त उसकी फांसी काटकर उसे हाथी पर चढ़ाकर बड़ी धूमधाम से नगर में प्रवेश कराया।
सभा में आते ही राजा ने उसे कहा कि- हे महाशय ! हमारे सब तरह पूछने पर भी तुमने परदोष प्रगट नहीं किया, यह तेरे समान कुलीन पुरुष को वास्तव में योग्य ही है, किन्तु इस विषय में मैंने अज्ञान रूप असावधानी के कारण तेरा जो अपराध किया है, उस सब को तू क्षमा कर, क्योंकि सत्पुरुष क्षमावान होते हैं । .. इतने में सुभट पुरोहित पुत्र को बांधकर वहां लाये, उसे