________________
विमल की कथा
अक्रूरता रूप पञ्चम गुण का वर्णन किया, अब भीरुता रूप षष्ठ गुण का वर्णन करते हैं :
इह परलोयावाए, संभावंतो न बट्टए पावे । बीहइ अजसकलंका, तो खलु धम्मारिहो भीरू ॥१३॥
मूल का अर्थ- इस लोक के व परलोक के संकटों का विचार करके ही पाप में प्रवृत्त न होवे और अपयश के कलंक से डरता रहे वह भीरु कहलाता है। इससे वैसा पुरुष ही धर्म के योग्य समझा जाता है।
टीका का अर्थ- इस लोक के अपाय याने राजनिग्रह आदि और परलोक के अपाय याने नरक गमनादिक. उनकी सम्भावना करता हुआ, (जो भीरु होवे वह) पाप में याने हिंसा, झूठ आदि में न वर्ते याने प्रवृत्त न हो तथा अपयश के कलंक से डरता हो अर्थात् ऐसा न हो कि अपने कुल को कलंक लग जाय. इस कारण से भी वह पाप में प्रवर्तित नहीं होता । उससे याने उस कारण खलु याने वास्तव में इस शब्द का सम्बन्ध ऊपर के पद के साथ जोड़ना, इस प्रकार कि-धर्म के अर्ह याने धर्म के योग्य, जो भोरु याने पाप से डरने वाले हों वही वास्तव में हैं, विमल के समान ।
विमल की कथा इस प्रकार है। श्री नन्दन (लक्ष्मी के पुत्र ) समकर (मगर के चिन्ह वाले) कामदेव के समान श्री नन्दन (लक्ष्मी से आनन्द देने वाला समकर) कुशस्थल नामक नगर था । वहाँ चन्द्र के समान लोकप्रिय कुवलयचन्द्र नामक एक सेठ था। उस सेठ की आनन्दश्री नामक स्त्री थी. जो पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण की स्त्री लक्ष्मी के समान