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कीर्तिचंद्र राजा की कथा
मन चलायमान हो गया । वह स्वभाव ही से क्रूर होने से विचारने लगा कि राजा को मार कर यह सुख कारक राज्य तथा यह अक्षय खजाना ले लूं । यह विचार कर उसने राजा पर घात (वार) किया, जिसे देखकर शेष नागरिक जन चिल्लाने लगे कि हाय-हाय ! यह क्या अनर्थ हुआ । तथापि राजा ने उक्त घात बचा लिया ।
राजा अक्रर मन वाला होने से अपनी भुजाओं से उसे पकड़ कर कहने लगा है भाई ! तूने यह कुल के अनुचित प्रतिकूल कार्य कैसे किया ? हे समर ! जो तुझे यह राज्य अथवा यह निधान चाहिए तो प्रसन्नता से ग्रहण कर और मैं व्रत ग्रहण करता हूँ। यह सुन कर क्रोध के फल से अज्ञात और विवेक-हीन समरविजय उस नाव को छोड़कर राजा से अलग हो गया ।
जिसके कारण भाई-भाई भी अकारण इस प्रकार शत्रु हो जाते हैं, ऐसे इस निधान का मुझे काम ही नहीं । यह सोचकर उसे त्याग राजा अपने नगर को आया ।
इधर समरविजय भ्रमरों की पंक्ति समान पाप के वश से सन्मुख पड़े हुए उक्त रत्न निधान को भी न देखकर मन में सोचने लगा कि निश्चय उसे राजा ले गया है । पश्चात् वह लुटेरा होकर अपने भाई के देश को लूटने लगा, किसी समय सामन्तसरदारों ने उसे पकड़ कर राजा के सन्मुख उपस्थित किया । तब राजा ने उसे क्षमा कर दिया व राज्य देने को कहते हुए भी समर सोचने लगा कि मेरा भाई प्रसन्नता से राज्य देता है वह न लेकर अपने बल से राज्य लेना चाहिये । :
इस प्रकार कभी राजा के शरीर पर आक्रमण करता, कभी खजाना लूटता, कभी देश को लूटता था और पकड़ाते हुए भी