________________
विनयंधर की कथा
४७
उसके हाथ से भोजपत्र पर निम्नाङ्कित गाथा लिखा कर शीघ्र उसे ज्ञात न हो उस तरह चुपचाप वह मेरे पास ले आ । वह गाथा यह है:____“ हे विकस्वर नेत्रवाली और रतिक्रीड़ा कुशल, तेरे असा विरह से पीड़ित हुए मुझ अभागे को आज की यह रात्रि हजारों रात्रि समान हो गई है" । उक्त चाकर के ऐसा ही करने के अनन्तर राजाने वह भोज पत्र नगरवासियों के सन्मुख रखा और कहा कि यह पत्र विनयधर ने रानी को गंधपुट में भेजा है । हे नागरिकों ! लिपि की परीक्षा करके ठीक ठीक बात मुझे कहो, फिर यह मत कहना कि राजा ने अनुचित किया है। तब नगर के श्रेष्ठ-जन विचार करने लगे कि जो भी दूध में पूरे (सूक्ष्मजंतु) न हों तो भी राजा की आज्ञा के आधीन होना चाहिये यह कह अपने हाथ में उक्त लेख ले लिपि परीक्षा करने लगे। तो लिपि तो ठीक ठीक मिल ही गई जिससे नगरजन विषाद सहित बोले कि यद्यपि लिपि मिलती है तथापि ऐसे मनुष्य से ऐसा काम होना घटता नहीं । कारण कि जो हाथी शल्लकी के वृक्षों से भरे हुए सुन्दर वन में फिरता है वह कटीले केरों में किस प्रकार रमण करे ? जो राजहंस सदैव मानस सरोवर के अत्यन्त निर्मल पानी में क्रीड़ा किया करता है वह ग्रामनद में किस प्रकार विचरे ? उस परिपूर्ण पुण्यशाली पास जो क्षण भर भी जा बैठता है वह बांस के संग से जैसे सर्प विष को छोड़े वैसे पाप को छोड़ देता है। इसलिये अब आप श्रीमान ही ने मध्यस्थ होकर वास्तविक बात सोचना चाहिये कि यह अघटित बनाव किसी नीच मनुष्य का बनाया हुआ है । जैसे कि स्फटिक मणि स्वयं श्वेत होते हुए भी उपाधेि क्श अन्य रंग धारण करती है वैसे ही