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विनयधर की कथा
होता है. इसीलिये कहा है कि - ' सखावत से प्रत्येक प्राणी वश में होता है, सखावत से वैर भूले जाते हैं, सखावत ही से त्राहित मनुष्य बंधुतुल्य हो जाता है, इसलिये सदैव सखावत करते रहना चाहिये । मनुष्य विनय से लोकप्रिय होता है, चंदन उसको सुगंधि से लोकप्रिय होता है, चन्द्र उसकी शीतलता से लोकप्रिय होता है और अमृत उसके मिठास से लोकप्रिय होता है। निर्मल शीलवान पुरुष इस लोक में कोर्ति और यश प्राप्त करता है और सर्व लोगों को वल्लभ हो होता है, तथा परलोक में उत्तम गति पाता है। ऐसा लोकप्रिय पुरुष धर्म प्राप्त करे तो उससे जो फल होता है वह कहते हैं:
ऐसा लोकप्रिय पुरुष जनों को याने सम्यग्दृष्टि जनों को भी धर्म में याने कि वास्तविक मुक्तिमार्ग में, बहुमान याने आंतरंगिक प्रीति उपजाता है अथवा धर्म प्राप्ति के हेतु रूप बोधिबीज को उत्पन्न करता है. विनयंधर समान इसी से कहा है कि -धर्म का प्रशंसा तथा बीजाधान का कारण होने से लोकप्रियता सद्धर्म की सिद्धि करने को समर्थ है यह बात यथार्थ है।
विनयंधर की कथा इस प्रकार है. यहां सुवर्णरुचिरा चंपक-लता के समान चंपा नामक विशाल नगरी थी, उसमें न्यायधर्म की बुद्विवाला धर्मबुद्वि नामक राजा था। उस राजा को रूप से देवांगनाओं को भी जीतने वाली विजयंती नामक रानी थी और वहां इभ्य नामक श्रेष्ठी था और उसकी पूर्ण यशा नामक भार्या थी । सदैव गुरुजन को पांव पड़ने वाला, अपने शरीर की कान्ति से सुवर्ण को भी जीतने वाला
और बहुत विनयवान् विनयधर नामक उस श्रेष्टि का पुत्र था । वह कुमार सर्व कलाओं में कुशल हो, चन्द्रमा के समान सर्व