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अक्षुद्रगुण पर
सदैव साथ रहते थे। वे दोनों दूसरे की चाकरी करके आजीविका चलाते थे। सोम गहरी बुद्धिवाला होने से अक्षुद्र भद्रपरिणामी और विनीत था, व भीम उससे प्रतिकूल गुणवाला था उन दोनों ने एक दिन कहीं जाते हुए सूर्य की किरणों से झगझगित व मेरू-पर्वत समान विशाल जिनमंदिर देखा। तब सूक्ष्म बुद्धि सोम भीम को कहने लगा कि-अपन ने पूर्व भव में कुछ भी सुकृत नहीं किया, इसी से यह पराई चाकरी करनी पड़ती है। जिससे मनुष्यत्व तो सबका समान है, तो भी एक स्वामी होता है और दूसरे उसके पांव पर चलने वाले चाकर होते हैं । यह बिना कारण कैसे हो सकता है ? इसलिये यह सुकृत व दुष्कृत ही का फल है। अतः चलो, देव को नमन करें और दुःखों को जलांजलि देकर दूर कर । तब उद्धतबुद्धि भीम वाचाल होने से बोलने लगा कि
हे सोम ! इस जगत् में पंचभूत की गड़बड़ के अतिरिक्त आकाश के फूल के समान अन्य जीव नाम का कोई पदार्थ ही नहीं, तो फिर देव आदि कहां से हों ? इसलिये हे भोले ! तू पाखंडियों के मस्तिष्क के अति भयंकर तांडवाडंबर से मुग्ध होकर अल्पमति हो देव-देव पुकार कर अपने आपको क्यों हैरान करता है ?। .
इस प्रकार भीम के निवारण करते हुए भी सोम (चन्द्र) के समान निर्मल बुद्धिरूप चंद्रिकावाला सोम जिन मंदिर में जा, जगत् बन्धु जिनेश्वर को नमन करके पाप शमन करता हुआ साथ ही एक रुपये के फूल लेकर उसने उत्कृष्ट भक्ति से जिनेश्वर की पूजा करी । उस पुण्य के कारण से उसने मनुष्य के आयुष्य के साथ बोधिबीज उपार्जन किया ।
वही सोम वहां से मरकर हे मणिरथ राजा ! तेरा पूर्ण पुण्यशाली और कामदेव समान विक्रमकुमार नामक पुत्र हुआ है। और