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किञ्चिद् बक्तव्य ।
सुज्ञ विवेकी पाठकों के समक्ष जीवन के स्तर को ऊंचा उठाकर धर्माराधना के अनुकूल जीवन को बनाने वाले उत्तम इक्कीस गुणों के वर्णन-स्वरूप श्री धर्म - रत्न प्रकरण ( हिन्दी ) का यह प्रथम भाग प्रस्तुत किया जा रहा है ।
वैसे तो यह ग्र'थरत्न खूब ही मार्मिक धर्म की व्याख्याओं से एवं आराधना के विविध स्वरूपों से भरपूर है, फिर भी प्रारंभ में भूमिका स्वरूप इक्कीस गुणों का हृदयंगम वर्णन कथाओं के साथ किया गया है। इस चीज को लेकर बाल जीवों को यह ग्रन्थ अत्युपयोगी है ।
इसी चीज को लक्ष्य में रखकर आगमसम्राट बहुश्रुत ध्यानस्थ स्वी आचार्य श्री आनन्दसागर सूरीश्वरजी म. के सदुपदेश से वि० सं० १९८३ के चतुर्मास में वर्तमान गच्छाधिपति श्राचार्य श्री माणिक्यसागर सूरीश्वरजी के प्रथम शिष्य मुनिराज श्री अमृतसागरजी म० के आकस्मिक काल-धर्म के कारण उन पुण्यात्मा की स्मृति निमित्त "श्री जैन- अमृत-साहित्य - प्रचार समिति” की स्थापना उदयपुर में हुई थी । जिसका लक्ष्य था