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इकवीस गुण
सक्कह १२ सुपक्खजुत्तो १४, सुदीहदंसी १५ विसेसन्नू १६ वुडढाणुगो १७ विणीओ १८, कयण्णुप्रो १९ परहियत्थकारी य । तह चेव लद्धलक्खो २१, इगवीमगुणेहिं संपन्नो ॥७॥ अर्थ -जो पुरुष अक्षुद्र, रूपवान्, शान्त प्रकृति, लोक प्रिय अकर, पार भीरू, निष्कपटी, दाक्षिण्यतावान्, लज्जालु, दयालु, मध्यस्थ, सोमहाटे, गुगरागी, स्वजन संबंधियों के साथ प्रोति रखने वाला, दोघेदी, गुणदोषज्ञ, वृद्धानुगामो, विनोत, कृतज्ञ, परोपकारी और समझदार, ऐसे इकवीस गुण वाला होवे वह धर्म रूप रत्न का पात्र हो सकता है । ५-६-७
धर्मों में जो रत्न समान प्रवर्तित है वह जिनभाषित देशविरति और सर्वविरति रूप धर्म धर्मरत्न कहलाता है-उसको योग्य याने उचित-वह होता है कि जो 'इकवीस गुण से संपन्न हो' इस प्रकार तीसरी गाया के अंत में जो पद है वह साथ में जोडना। . उन्हीं गुणों को गुण गुणिका कितनेक प्रकार से अभेद बताने के लिये गुणिवाचक विशेषणों से कह बताते हैं यहां 'अक्खुद्दो इत्यादि पद बोलना.
वहां अक्षद्र याने अनुत्तान मतिवाला हो- अर्थात् जो क्षद्र याने उहड वा कम बुद्धि न हो उसे अक्षद्र जानना. १ __ रूपवान्, अर्थात् सुन्दर रूप वाला अर्थात् जो अच्छी पांच इन्द्रियों वाला हो-यहां मतु प्रत्यय प्रशंसा का अर्थ बतलाता है, फक्त रूप मात्र बतलाना हो तो इन् प्रत्यय ही आता है, जैसे कि 'रूपिणः पुद्गलाः प्रोढता' रूपि पुद्गल कहे हुए हैं [ इस जगह रूपि याने रूपवाले इतना ही अर्थ होता है ] २