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कृतज्ञता गुण पर
संभ्रान्त क्यों दीखता है ? वामदेव ने कहा-तेरे विरह से व्याकुल हो गया हूँ।
.. उसको धीरज देकर, कुमार उसके साथ जिनमंदिर में आया । पश्चात् कुमार तो मंदिर के अन्दर गया और वामदेव बाहिर ही खड़ा रहा । वामदेव को शंका हुई कि-कुमार ने मुझे जान लिया है। जिससे वह भय के मारे विवेकहीन होकर वहां से भागा । और दौड़ता २ तीन दिन में अट्ठावीस योजन चलकर मणि वाली गांठ छोड़कर देखने लगा तो उसमें उसने पत्थर का दुकड़ा देखा।
तब वह हाय ! हाय ! कर मूर्छित हो भूमि पर गिर पड़ा और सुधि में आने पर अनेक प्रलाप करने लगा।
उसने विचार किया कि-अभी भी वहां जाकर वह रत्न लाना चाहिये । जिससे वह मनमें बारंबार शोक करता हुआ स्वदेश की ओर लौटा।
इतने में देव को नमन करके कुमार जिनमंदिर से बाहर निकला । वहां मित्र को न देखकर उसने वन आदि स्थान में उसे खोजा । उसके कहीं भी न दीखने पर कुमार ने चारों दिशाओं में अपने मनुष्य भेजे । इतने में वामदेव के वहां आ पहुँचने से उसे कुमार के कुछ मनुष्य वहां ले आये। तब कुमार ने उसे अर्द्धासन पर बिठाकर कहा कि, हे मित्र ! तुमे जो सुख दुःख हुआ हो तो मुझे कह तब वामदेव इस प्रकार बोला कि:--