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कृतज्ञता गुण पर
के अन्दर प्रवेश करते ही एक मुनियों का समूह देखा । उनके बीच में मैंने एक सुन्दर व तलवार के समान कृष्ण वर्ण देह वाला व पीले केशवाला होने से मानो अग्नि से जलते हुए पर्वत के समान, मूषक के समान छोटे २ कर्ण वाला, विकराल बिल्ली के समान पीले नेत्र वाला, वानर के समान चपटी नाक वाला, मृग के समान अति बे कंठ और ओष्ठ वाला, लम्बे तथा स्थूल पेट वाला, ऐसा उद्वेगकारी रूप वाला किन्तु मधुर शब्दों से धर्म कहता हुआ साधु देखा।
उसे देखकर मैंने अपने हृदय में सोचा कि इन महाराज का इनके गुणों के अनुकूल रूप नहीं । पश्चात् जिन मंदिर में प्रवेश कर जिन प्रतिमा को स्नान करा, पूजा कर क्षण भर के बाद साधुओं को वन्दन करने के लिये बाहर निकला तो उन्हीं मुनि को मैंने स्वर्ण कमल पर बैठे देखा । उस समय वह रतिरहित कामदेव अथवा रोहिणी रहित चन्द्र समान दिखने लगा। तथा उसे दीप्तिमान सुवर्ण के समान वर्ण वाला, शरीर की कांति से अंधकार को नाश करने वाला, भ्रमर के समान काले बाल वाला, सुन्दर लम्बे कान वाला, नील कमल के पत्र के समान नेत्रवाला, अत्यंत ऊंची व सरल नासिका वाला, कपोत के समान कंठ वाला, नव पल्लव के समान लाल ओष्ठ वाला, सिंह के बच्चे के समान पेटवाला, चौडे वक्षस्थल से मेरु समान लगता तथा सुर व किन्नरों से घिरा हुआ नेत्रों को आनन्दकारी देखा।
तब मैंने विचार किया कि ये साधु क्षणभर में ऐसे किस प्रकार हो गये ? कदाचित् चंदन गुरु ने मुझे अनेक लब्धियां कही हैं । (उनके प्रताप से ऐसा हुआ होगा.)
यथाः-आम!षधी, विप्रौषधी, खेलौषधी, जल्लौषधी,