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कृतज्ञता गुण पर
प्रतीत होता था कि-मानो अनेक वृक्षों वाला उद्यान हो । तथा आकाश में फहराती हुई ध्वजाओं से ऐसा दीखता था, मानो आकाश गंगा की लहर बह रही हैं। उसके शिखर पर अत्यंत ऊंचे स्वर्णदंड थे तथा वह सुवर्ण कलशों से सुशोभित था । कहीं उसकी चित्रकारी में बेल बूटे थे, कहीं मानो पुलकित शरीरवाले जीवित चित्र दीखते थे। कहीं कवचधारी चित्र थे । कहीं स्फुरित इन्द्रियोंवाले चित्र थे। उनमें स्थान स्थान में हरिचंदन के फूलों के तख्ते भरे हुए थे और उसका जुड़ाई का काम इतना उत्तम था कि मानो वह एक ही पत्थर से बनाया हो ऐसा भाषित होता था। __उसमें विविध चेष्टा करती हुई अनेक पुतलियां थी। इससे वह ऐसा लगता था मानो अप्सराओं से अधिष्ठित मेरु का शिखर हो। ऐसे जिनमंदिर में जाकर उन्होंने वहां ऋषभदेव भगवान की सुन्दर प्रतिमा देखी। जिससे हर्षित होकर उन्होंने उनको नमन किया। . अब उस अतिशय रमणीय और फैले हुए पाप रूप पर्वत को तोड़ने के लिये वन समान जिनबिंब को निर्निमेष नेत्रों द्वारा देखते हुए विमल कुमार विचार करने लगा कि-ऐसा स्वरूपवान बिम्ब मैंने पहिले भी कहीं देखा है। इस प्रकार विचार करता हुआ सहसा वह मूर्छित होकर भूमि पर गिर पड़ा।
तब उस पर हवा करने पर वह चैतन्य हुआ. तो विद्याधर उसे आग्रह से पूछने लगा कि-यह क्या हुआ ? तब रत्नचूड़ के चरण छूकर विमल कुमार अत्यन्त हर्ष से उसकी इस प्रकार स्तुति करने लगा कि-तू मेरा माता पिता है। तू मेरा भाई